Wednesday, November 8, 2017

काल भैरव मंदिर – जहां भगवान काल भैरव करते है मदिरा पान

मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर से करीब 8 कि.मी. दूर, क्षिप्रा नदी के तट पर कालभैरव मंदिर स्थित है। कालभैरव का यह मंदिर लगभग छह हजार साल पुराना माना जाता है। यह एक वाम मार्गी तांत्रिक मंदिर है। वाम मार्ग के मंदिरों में माँस, मदिरा, बलि, मुद्रा जैसे प्रसाद चढ़ाए जाते हैं। प्राचीन समय में यहाँ सिर्फ तांत्रिको को ही आने की अनुमति थी। वे ही यहाँ तांत्रिक क्रियाएँ करते थे। कालान्तर में ये मंदिर आम लोगों के लिए खोल दिया गया। कुछ सालो पहले तक यहाँ पर जानवरों की बलि भी चढ़ाई जाती थी। लेकिन अब यह प्रथा बंद कर दी गई है। अब भगवान भैरव को केवल मदिरा का भोग लगाया जाता है। काल भैरव को मदिरा पिलाने का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है। यह कब, कैसे और क्यों शुरू हुआ, यह कोई नहीं जानता।



महाकाल की नगरी उज्जैन में स्तिथ काल भैरव मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है की यहाँ पर भगवान काल भैरव साक्षात रूप में मदिरा पान करते है। जैसा की हम जानते है काल भैरव के प्रत्येक  मंदिर में भगवान भैरव को मदिरा प्रसाद के रूप में चढ़ाई जाती है। लेकिन उज्जैन स्तिथ काल भैरव मंदिर में जैसे ही शराब से भरे प्याले काल भैरव की मूर्ति के मुंह से लगाते है तो देखते ही देखते वो शराब के प्याले खाली हो जाते है।

मंदिर में काल भैरव की मूर्ति के सामने झूलें में बटुक भैरव की मूर्ति भी विराजमान है। बाहरी दिवरों पर अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी स्थापित है। सभागृह के उत्तर की ओर एक पाताल भैरवी नाम की एक छोटी सी गुफा भी है।

मंदिर में शराब चढ़ाने की गाथा भी बेहद दिलचस्प है। यहां के पुजारी बताते हैं कि स्कंद पुराण में इस जगह के धार्मिक महत्व का जिक्र है। इसके अनुसार, चारों वेदों के रचियता भगवान ब्रह्मा ने जब पांचवें वेद की रचना का फैसला किया, तो उन्हें इस काम से रोकने के लिए देवता भगवान शिव की शरण में गए। ब्रह्मा जी ने उनकी बात नहीं मानी। इस पर शिवजी ने क्रोधित होकर अपने तीसरे नेत्र से बालक बटुक भैरव को प्रकट किया। इस उग्र स्वभाव के बालक ने गुस्से में आकर ब्रह्मा जी का पांचवां मस्तक काट दिया। इससे लगे ब्रह्म हत्या के पाप को दूर करने के लिए वह अनेक स्थानों पर गए, लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली। तब भैरव ने भगवान शिव की आराधना की। शिव ने भैरव को बताया कि उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर ओखर श्मशान के पास तपस्या करने से उन्हें इस पाप से मुक्ति मिलेगी। तभी से यहां काल भैरव की पूजा हो रही है। कालांतर में यहां एक बड़ा मंदिर बन गया। मंदिर का जीर्णोद्धार परमार वंश के राजाओं ने करवाया था।

इसके अलावा जब भी किसी भक्त को मुकदमे में विजय हासिल होती है तो बाबा के दरबार में आकर मावे के लड्डू का प्रसाद चढ़ाते हैं तो वहीं जिन भक्तों की सूनी गोद भर जाती है वो यहां बाबा को बेसन के लड्डू और चूरमे का भोग लगाते हैं. प्रसाद चाहे कोई भी क्यों न हो बाबा के दरबार में आने वाले हर भक्त सवाली होता है और बाबा काल भैरव अपने आशीर्वाद से उसके कष्टों को हरने वाले देवता.

बाबा काल भैरव के इस धाम एक और बड़ी दिलचस्प चीज है जो भक्तों का ध्यान बरबस अपनी ओर खींचती है और वो है मंदिर परिसर में मौजूद ये दीपस्तंभ. श्रद्धालुओं द्वारा दीपस्तंभ की इन दीपमालिकाओं को प्रज्जवलित करने से सभी मनोकामनाऐं पूरी होती हैं. भक्तों द्वारा शीघ्र विवाह के लिए भी दीपस्तंभ का पूजन किया जाता है. जिनकी भी मनोकामना पूरी होती है वे दीपस्तंभ के दीप जरूर रोशन करवाते हैं. इसके अलावा मंदिर के अंदर भक्त अपनी मनोकामना के अनुसार दीये जलाते हैं जहां एक तरफ शत्रु बाधा से मुक्ति व अच्छे स्वास्थ्य के लिए सरसों के तेल का दीया जलाने की पंरपरा है तो वहीं अपने मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि की इच्छा करने वाले चमेली के तेल का दीया जलाते हैं.

कालभैरव के इस मंदिर में दिन में दो बार आरती होती है एक सुबह साढ़े आठ बजे आरती की जाती है. दूसरी आरती रात में साढ़े आठ बजे की जाती है. महाकाल की नगरी होने से भगवान काल भैरव को उज्जैन नगर का सेनापति भी कहा जाता है. कालभैरव के शत्रु नाश मनोकामना को लेकर कहा जाता है कि यहां मराठा काल में महादजी सिंधिया ने युद्ध में विजय के लिए भगवान को अपनी पगड़ी अर्पित की थी. पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय के बाद तत्कालीन शासक महादजी सिंधिया ने राज्य की पुर्नस्थापना के लिए भगवान के सामने पगड़ी रख दी थी. उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि युद्ध में विजयी होने के बाद वे मंदिर का जीर्णोद्धार करेंगे. कालभैरव की कृपा से महादजी सिंधिया युद्धों में विजय हासिल करते चले गए. इसके बाद उन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया. तब से मराठा सरदारों की पगड़ी भगवान कालभैरव के शीश पर पहनाई जाती है.

इस मंदिर की कहानी बड़ी दिलचस्प है. स्कंद पुराण के मुताबिक चारों वेदों के रचियता ब्रह्मा ने जब पांचवें वेद की रचना करने का फैसला किया तो परेशान देवता उन्हें रोकने के लिए महादेव की शरण में गए. उनका मानना था कि सृष्टि के  लिए पांचवे वेद की रचना ठीक नहीं है. लेकिन ब्रह्मा जी ने महादेव की भी बात नहीं मानी. कहते हैं इस बात पर शिव क्रोधित हो गए. गुस्से के कारण उनके तीसरे नेत्र से एक ज्वाला प्रकट हुई. इस ज्योति ने कालभैरव का रौद्ररूप धारण किया, और ब्रह्माजी के पांचवे सिर को धड़ से अलग कर दिया. कालभैरव ने ब्रह्माजी का घमंड तो दूर कर दिया लेकिन उन पर ब्रह्महत्या का दोष लग गया. इस दोष से मुक्ति पाने के लिए भैरव दर दर भटके लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली. फिर उन्होंने अपने आराध्य शिव की आराधना की. शिव ने उन्हें शिप्रा नदी में स्नान कर तपस्या करने को कहा. ऐसा करने पर कालभैरव को दोष से मुक्ति मिली और वो सदा के लिए उज्जैन में ही विराजमान हो गए.

वैसे तो काल भैरव के इस मंदिर में पैर रखते ही मन में एक अजीब सी शांति का एहसास होता है, लगता है मानो सारे दुख दूर हो गए लेकिन कालभैरव को ग्रहों की बाधाएं दूर करने के लिए जाना जाता है. खास तौर पर जन्म कुंडली में राहु से पीड़ित होने वाला व्यक्ति विचारों के जाल में फंसा रहता है. वो अगर इस मंदिर में आकर भगवान को भोग लगाता है तो उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाती है. बिल्कुल वैसे ही जैसे कालभैरव को शिव की आराधना से मिली थी.

बाबा काल भैरव के भक्तों के लिए उज्जैन का भैरो मंदिर किसी धाम से कम नहीं. सदियों पुराने इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसके दर्शन के बिना महाकाल की पूजा भी अधूरी मानी जाती है. अघोरी जहां अपने इष्टदेव की आराधना के लिए साल भर कालाष्टमी का इंतजार करते हैं वहीं आम भक्त भी इस दिन उनके आगे शीश नवां कर आशीर्वाद पाना नहीं भूलते. वैसे तो यहां साल भर भारी तादाद में श्रद्धालु आते हैं लेकिन रविवार की पूजा का यहां विशेष महत्व होता है.

Tuesday, November 7, 2017

रसखान

रसखान अर्थात रस की खान उसमें कवि हृदय भगवतभक्त और कृष्णमार्गी व्यक्तित्व का नाम था जिसने यशोदानन्दन श्रीकृष्ण की भक्ति में अपना समस्त जीवन व्यतीत कर दिया था | भक्त शिरोमणि रसखान का कनम विक्रमी संवत 1635 (सन 1578) में हुआ था | इनका परिवार भी भगवतभक्त था | पठान कुल में जन्मे रसखान को माता पिता के स्नेह के साथ साथ सुख ऐश्वर्य भी मिले | घर में कोई अभाव नही था |




चूँकि परिवार भर में भगवत भक्ति के संस्कार थे ,इस कारण रसखान को भी बचपन में धार्मिक जिज्ञासा विरासत में मिली थी | बृज के ठाकुर नटवरनागर नन्द किशोर भगवान कृष्ण पर इनकी अगाध श्रुदा थी | एक बार कही भगवतकथा का आयोजन हो रहा था |व्यास गद्दी पर बैठे कथा वाचक बड़ी ही सुबोध और सरल भाषा में महिमामय भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओ का सुंदर वर्णन कर रहे थे | उनके समीप ही बृजराज श्याम सुंदर का मनोहारी चित्र रखा था |

रसखान भी उस समय कथा श्रवण करने पहुचे | ज्यो ही उनकी दृष्टि व्यास गद्दी के समीप रखे कृष्ण कन्हैया के चित्र पर पड़ी | वह जैसे स्तभित रह गये | उनके नेत्र भगवान के रूप में माधुर्य को निहारते गये जैसे चुम्बक लोहे को अपनी तरफ खींचता है |उसी प्रकार रसखान का हृदय मनमोहन की मोहिनी सुरत की तरफ खींचा जा रहा था | कथा की समाप्ति पर रसखान एकटक उन्हें ही देखते रहे |

जब सब लोग चले गये तो व्यासजी ने उनकी तरफ देखा और जब उनकी अपलक दृष्टि का केंद्र देखा तो व्यास महाराज मुस्कुराने लगे | वह उठकर रसखान के पास आये |

“वत्स ! क्या देख रहे हो ?” उन्होंने सप्रेम पूछा |

रसखान ने प्रश्न पूछा  “पंडित जी ,सामने रखा चित्र भगवान श्रीकृष्ण का ही है न ”

व्यासजी ने कहा “हाँ ! यही उन्ही नटवर नागर का चित्र है ”

रसखान गदगद कंठ से बोले | “कितना सुंदर चित्र है | क्या कोई इतना दर्शनीय और मनभावन भी हो सकता है ?”

व्यासजी ने कहा “जिसने इतनी दर्शनीय सृष्टि का निर्माण कर दिया वह दर्शनीय और मनभावन तो होगा ही ”

अब रसखान ने कहा “पंडित जी , यह मनमोहिनी सुरत मेरे हृदय में बस गयी है | यह साक्षात इस अद्भुद मुखमंडल के दर्शन करने का अभिलाषी हु | क्या आप मुझे उनका पता बता सकते हो ?”

व्यासजी ने कहा “वत्स ब्रज के नायक तप ब्रज में ही मिलेंगे न ”

रसखान जी ने कहा “फिर तो मै ब्रज को ही जाता हु ”

जिसके हृदय में भाव जागृत हुए और प्रभु से मिलने की उत्कंठा तीव्र हो जाए ,उसे संसार में कुछ ओर दिखाई नही पड़ता है | रसखान भी ब्रज की तरफ चल पड़े और वृन्दावन धाम में जाकर ही निवास किया | ब्रज की रज से स्पर्श होते ही मलिनता नष्ट हो जाती है |

भगवती कलिन्दी के पवन जल की पवित्र शीतलता के स्पर्श से ही रसखान के भावपूर्ण हृदय में प्रेमोवेग से कम्पन्न होने लगा | वृन्दावन के कण कण से गूंजती कृष्णनाम की सुरीली धुन ने उन्हें भाव विभोर कर दिया | धामों में धाम परमधाम वृन्दावन जैसे स्वर्ग की अनुभूति करा रहा था | रसखान ने इस दिव्यधाम की अनुभूति को अपने पद में ऐसे व्यक्त किया

या लकुटीअरु कमरिया पर राज तिहु पुर कौ तजि डारो |
आठहु सिद्दी नवो निधि कौ सुख नन्द की गाय चराय बिसारो |
रसखान सदा इन नयनहि सौ बृज के वन तडाग निहारौ |
कोनही कलधौत के धाम करील को कुंजन उपर वरौ |

फिर रसखान के हृदय में गिरधारी के गिरी गोवर्धन को देखने की इच्छा हुयी तो यह गोवर्धन जा पहुचे | वहा श्रीनाथ जी के दर्शनों के लिए मन्दिर में घुसने लगे |

“अरे-रे …रे…रे … कहा घुसे जा रहे हो ?” द्वारपाल ने टोक दिया “तुम्हारी वेशभूषा तो दुसरी है तुम मन्दिर में नही जा सकते हो ”

“यह कैसा प्रतिबंध !  वेशभूषा से भक्ति का क्या संबध ?”

“मै कुछ नही सुनना चाहता | मै तुम्हे अंदर नही घुसने दूंगा  ”

“भाई मै भी इन्सान ही हु | तुम्हारे ही तरह मैंने भी एक स्त्री के गर्भ से जन्म लिया है |तुम्हारी ही तरह ईश्वर ने मुझे भी भजन सुमरिन और दर्शन का अधिकार दिया है फिर तुम मुझे प्रभु के दर्शनों से क्यों वंचित रखना चाहते हो ?”

“अपने ये तर्क किसी ओर को सुनाना | मै विधर्मी को मन्दिर में नही घुसने दे सकता हु मै इसलिए तैनात हु ”

“परन्तु  | ”

“तुम इस प्रकार नही मानोगे ” द्वारपाल ने गुस्से से रसखान को सीढियों से धक्का दे दिया |रसखान उस व्यवहार पर व्यथित तो हुए और उन्हें आश्चर्य भी हुआ कि ब्रज में ऐसी मतिबुद्धि वाले इन्सान भी रहते है परन्तु उन्हें श्याम सखा पर उन्हें विश्वास था |रसखान ने अपने को पुरी तरह से अपने कृष्ण सखा के हवाले करके अन्न जल त्याग दिया

देस बिदेस के देख नरेसन ,रीझी की कोऊ न बुझ करैगो |
ताते तिन्हे तजजि जान गिरयो ,गुन सौ गुन औगुन गंठी परैगो |
बांसुरी वारों बडो रिसवार है श्याम जो नैकु सुटार ठरैगो |
लाडिलो छैल वही तो अहीर को पीर हमारे हिये हरैगो |

भगवान भी कब  अपने भक्त की हृदय वेदना से अनभिज्ञ थे | भक्त की विकलता तो भगवान को भी विकल कर देती है |प्राण वल्लभ भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्त की विरलता का आभास किया और भक्त की सारी पीड़ा हर ली | हरि का तो यही कार्य होता है | भक्त के समक्ष साक्षात प्रकट होकर भगवान ने द्वारपाल के दुर्व्यवहार की क्षमा माँगी | फिर रसखान को गौसाई विट्ठलनाथ जी के पास जाने का आदेश दिया |

रसखान प्रभु का आदेश पाकर गोसाई जी के पास पहुचे  और उन्होंने उन्हें गोविदकुंड में स्नान कराकर दीक्षित किया | फिर तो जैसे रसखान के अंदर भक्ति काव्य के स्त्रोत फुट पड़े | आजीवन भगवान कृष्ण की लीला को काव्य के रूप में वर्णन करते हुए ब्रज रहे | केवल भगवान ही उनके सखा था ,संबधी थे ,मित्र थे | अन्य कोई चाह नही थी | कोई लालसा नही थी | परन्तु एक इच्छा जो उनके पदों में स्पस्ट झलकती है कि वह जन्म जन्मान्तर ब्रज की भूमि पर ही जन्म लेने की थी |

मानुष हो तो वही “रसखान ” बसों बृज गोकुल गाँव के गवारन
जो पसु हो तो कहा बस मेरो चरो नितनदं की धेनु मंझारण |
पाहन हौ तो वही गिरी को जो धरयो कर छत्र पुरन्दर कारन |
जो खग हो तो बसेरो करो नित कालिंदी फुल कदम्ब की डारन |




भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए" उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है। बोधा और आलम भी इसी परम्परा में आते हैं। सय्यद इब्राहीम "रसखान" का जन्म अन्तर्जाल पर उपलब्ध स्रोतों के अनुसार सन् १५३३ से १५५८ के बीच कभी हुआ था। कई विद्वानों के अनुसार इनका जन्म सन् १५९० ई. में हुआ था। चूँकि अकबर का राज्यकाल १५५६-१६०५ है, ये लगभग अकबर के समकालीन हैं। इनका जन्म स्थान पिहानी जो कुछ लोगों के मतानुसार दिल्ली के समीप है। कुछ और लोगों के मतानुसार यह पिहानी उत्तरप्रदेश के हरदोई जिले में है। मृत्यु के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाई। यह भी बताया जाता है कि रसखान ने भागवत का अनुवाद फारसी और हिंदी में किया है ।

सखान कृष्ण भक्त मुस्लिम कवि थे। हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन रीतिमुक्त कवियों में रसखान का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। रसखान को 'रस की खान' कहा गया है। इनके काव्य में भक्ति, शृंगार रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और उनके सगुण और निर्गुण निराकार रूप दोनों के प्रति श्रद्धावनत हैं। रसखान के सगुण कृष्ण वे सारी लीलाएं करते हैं, जो कृष्ण लीला में प्रचलित रही हैं। यथा- बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि। उन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधि में इन असीमित लीलाओं को बखूबी बाँधा है। मथुरा जिले में महाबन में इनकी समाधि हैं|

रसखान के जन्म के सम्बंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। अनेक विद्वानों इनका जन्म संवत् 1615 ई. माना है और कुछ ने 1630 ई. माना है। रसखान के अनुसार गदर के कारण दिल्ली श्मशान बन चुकी थी, तब दिल्ली छोड़कर वह ब्रज (मथुरा) चले गए। ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर पता चलता है कि उपर्युक्त गदर सन् 1613 ई. में हुआ था। उनकी बात से ऐसा प्रतीत होता है कि वह उस समय वयस्क हो चुके थे।

रसखान का जन्म संवत् 1590 ई. मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। भवानी शंकर याज्ञिक का भी यही मानना है। अनेक तथ्यों के आधार पर उन्होंने अपने मत की पुष्टि भी की है। ऐतिहासिक ग्रंथों के आधार पर भी यही तथ्य सामने आता है। यह मानना अधिक प्रभावशाली प्रतीत होता है कि रसखान का जन्म सन् 1590 ई. में हुआ था।

रसखान के जन्म स्थान के विषय में भी कई मतभेद है। कई विद्वान उनका जन्म स्थल पिहानी अथवा दिल्ली को मानते है। शिवसिंह सरोज तथा हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर रसखान का जन्म स्थान पिहानी जिला हरदोई माना जाए।

रसखान अर्थात् रस के खान, परंतु उनका असली नाम सैयद इब्राहिम था और उन्होंने अपना नाम केवल इस कारण रखा ताकि वे इसका प्रयोग अपनी रचनाओं पर कर सकें। कृष्ण-भक्ति ने उन्हें ऐसा मुग्ध कर दिया कि गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा ली और ब्रजभूमि में जा बसे। सन् 1628 के लगभग उनकी मृत्यु हुई।
सुजान रसखान और प्रेमवाटिका उनकी उपलब्ध कृतियाँ हैं। रसखान रचनावली के नाम से उनकी रचनाओं का संग्रह मिलता है।

प्रमुख कृष्णभक्त कवि रसखान की अनुरक्ति न केवल कृष्ण के प्रति प्रकट हुई है बल्कि कृष्ण-भूमि के प्रति भी उनका अनन्य अनुराग व्यक्त हुआ है। उनके काव्य में कृष्ण की रूप-माधुरी, ब्रज-महिमा, राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का मनोहर वर्णन मिलता है। वे अपनी प्रेम की तन्मयता, भाव-विह्नलता और आसक्ति के उल्लास के लिए जितने प्रसिद्ध हैं उतने ही अपनी भाषा की मार्मिकता, शब्द-चयन तथा व्यंजक शैली के लिए। उनके यहाँ ब्रजभाषा का अत्यंत सरस और मनोरम प्रयोग मिलता है, जिसमें ज़रा भी शब्दाडंबर नहीं है।

यह उनकी इच्छा थी कि उन्हें किसी भी योनी में जन्म मिले पर जन्म भूमि ब्रज ही हो | उच्च कोटि के काव्य और भक्ति के धनी रसखान ने प्रभु स्मरण करते हुए 45 वर्ष की आयु में निजधाम की यात्रा की ,जिनके दर्शनों के लिए कितने ही योगी सिध्पुरुष तरसा करते है | उन्ही भगवान श्रीकृष्ण भक्तवत्सल भगवान ने अपने हाथो से अपने इस भक्त की अंत्येष्टि कर भक्त की कीर्ति को बढाया | प्रेमपाश में बंधे भगवान की कृपा और दर्शन का परम सौभाग्य विरलों को ही मिलता है और रसखान भी उन्ही में से थे |

Monday, November 6, 2017

Karni Mata Mandir

The temple is dedicated to Goddess Karni, who is regarded as the incarnation of Maa Durga.




In the 14th century, Goddess Karni is said to have lived and performed many miracles during her existence. Karni Mata was a mystic, who led a virtuous life committed to the service of the poor and the oppressed of all communities. The goddess is said to have laid the foundation of Deshnoke. As per the stories, once when her youngest son drowned, Goddess Karni asked Yama (the god of death) to bring him back to life.

Lord Yama replied that he could not return her son's life. Thus, Karni Mata, being an incarnation of Goddess Durga, restored the life of her son. At this point of time, she announced that her family members would die no longer; in fact they would incarnate in the form of rats (kabas) and ultimately, these rats would come back as the members of her family. In Deshnok, there are around 600 families that assert to be the descendants of Karni Mata.

The present temple dates back to the 15th century, when it was built by Maharaja Ganga Singh of Bikaner. The striking façade of the temple is wholly built in marble. Inside the temple complex, one can see a pair of silver doors before the main shrine of the Goddess. These solid silver doors were donated by Maharaja Gaj Singh, on his visit to this temple.

In the main shrine, the image of the goddess is placed with holy things at her feet. Surrounded by rats, Karni Mata is holding a trishul (trident) in one of her hands. The image of Karni Mata is 75 cms tall, decked with a mukut (crown) and a garland of flowers. On her either side, images of her sisters are placed. Karni Mata Temple attracts numerous tourists and pilgrims throughout the year, due to its unique presiding beings.



The temple has around 20,000 rats that are fed, protected and worshipped. Many holes can be seen in the courtyard of this temple. In the vicinity of these holes, one can see rats engaged in different activities. The Rats can be seen here eating from huge metal bowls of milk, sweets and grains. To make the holy rats safe, wires and grills are sited over the courtyard to avoid the birds of prey and other animals.

The story behind rats at the temple is different according to some local folklore. According to this version, a 20,000 strong army deserted a nearby battle and came running to Deshnoke. Upon learning of the sin of desertion, punishable by death, Karni Mata spared their lives but turned them into rats, and offered the temple as a future place to stay. The army of soldiers expressed their gratitude and promised to serve Karni Mata evermore.

It is believed that in 1538, when she was returning to Deshnok with her stepson Poonjar and other followers. It was when they were near Gadiyala and Girirajsar in Bikaner district where she asked the caravan to stop for water and she disappeared there, reportedly at the age of 151 years .

The rats, known as “kabbas” or “little children,” are fed grains, milk, and coconuts shells from large metal bowls. Water the rats drink from is considered holy, and eating the rats’ leftovers is said to bring good fortune to those making the pilgrimage to the temple. The devotees have another reason to keep the rats safe and happy: According to the temple laws, if one of the rats is accidentally killed, it must be replaced with a rat made of silver or gold.

But there is a bittersweet note to the whole affair. All the sweet foods, the fighting between rats, and the sheer number of animals living in the temple make them prone to diseases. Stomach disorders and diabetes are extraordinarily common among the rats, and every few years a rat epidemic decimates the population. Luckily, despite the dangers to the rats themselves, there are no recorded cases of humans contracting a disease from the temple rats.

Shoes are not allowed in the temple, and it’s considered very auspicious for a rat to run over your feet - or for a visitor to glimpse an albino rat, of which there are only four or five out of the twenty thousand. To see the temple in full glory, visitors should come late at night or before sunrise, when the rats are out in full force, gathering food.



Karni Mata Fair:

Twice a year, a grand fair “Deshnok”, a beautiful town in Bikaner area is held at the Karni Mata. A grand fair (1 a) “Chaitra Shukla tenth” until “Chaitra Shukla Ekam” start “Navratri” time is held between the months of March and April. This huge fair hosts of pilgrims coming here from distant places attract between takes. 2 fair “Navratri” during the period, which is held between the months of September and October. The “Ashwin Shukla tenth” until “Ashwin Shukla,” is held. (Devotees gets rewarded wants) on each occasion the Karni Mata devotees offer gold and silver.



Best time to visit

From October to March, especially in the winter season, at any time of the year you can visit Karni Devi Temple. Karni Devi temple daily, 4: 00-10: 00 is open.

Sunday, November 5, 2017

Shri Tilbhandeshwar Mahadev Mandir Varanasi

Shri Tilbhandeshwar Mahadev Mandir also known as Tilbhandeshwar Mahadev Mandir and Tilbhandeshwar Mandir, is one of the oldest and most famous temples in the holy city of Varanasi. This temple has great religious importance in Hinduism and is dedicated to the Lord Shiva. Tilbhandeshwar Mandir is believed to be constructed in 18th century.



It has assimilated Malayali and Hindu cultures in its broad fold. The temple has Shivalingam in the Garbhagriha. Like many other temples of the worlds’ oldest living city of Varanasi the temple has surfaced itself and hence called Swyambhu, translates to appeared itself. Unlike many other gods worshipped in deity form there are rare instances of worshipping Lord Shiva in deity or idol form. In almost all temples of India the supreme god Lord Shiva is worshipped in Shivalingam form. Though there is no evidence of starting of cult of Shivalingam or Phallus worship it is believed that it dates back to Harappan civilization as Shiva in Lingam form was worshipped as reverence to the power of regeneration because he is considered as the destroyer of the universe. But the form worshipped in Harappan Civilization was that of Pashupati, a synonym of Lord Shiva. Pashupati means master of animals or creatures; it is because he is said to have surrounded by animals in many myths of Indian Culture.

Tilbhandeshwar Temple is located near Bangal Tola Inter College and next to Madanpura, the famous Banarasi Sarees weavers’ colony. It is believed that Shivalingam present in the centre of the temple increases with passage of time. Geologists believe that these happenings are not supernatural. It is because of endogenic forces and movements of the earth. It is said that Goddess Sharda, Goddess of knowledge has spent here some days. The devotees of the temple come here to worship and offer other things dear to god in order to appease him for their well being.



The ShivLingam is said to increase by size of a 'til'. This fact is proven scientifically and it is a miracle which can be seen by the eyes.Presently the visible part of the Shiv Ling is almost 3.5 ft. and the diameter of the base would be around 3 ft. (approx). The exact height of whole Shiv Lingam is not known bt it must be around 20 ft. There is a special silence in the temple unlike other temples ther is no 'panda' system so one can go to main Garbh Griah where the Shiv Ling is offer Jal and can sit and meditate in the feet of Lord.

Maha Shivaratri, Shravan Nagapanchami and Ayappa Pooja are the main festivals celebrated at the precincts of the temple. Besides there is a huge crowed on every Monday as the day is dedicated to Lord Shiva. It is not only unique thing of Indian culture but also in Roman and Greek cultures people used to celebrate days and name planets on the name of Gods and Goddesses. Mars, Jupiter, Venus, Mithiro, are not merely planets but also relates to great traditions of Roman and Greek cultures.

Temple has a serene premise to attract anyones attention. Unlike many other bustling temples of the city the Tilbhandeshwar Temple has a calm and pristine nature around itself. If you are a spiritual being you can enjoy long hours to meditate in the capturing silence of the temple.

Temple opens at 4.30 am in the morning and closes 9 pm at night.  Daily the Shringar is done after 3:30 pm and special shringar is done on every Monday which is a real beautiful thing to see and everyday around 10 AM & 7 PM the bhog and aarti is done .

Shri Tilbhandeshwar Mahadev Mandir is situated in Pandey Haveli, Bhelupur, adjacent to Bengali Tola Inter College, 500 meters East of river Ganga, 3.2 kilometers North of Banaras Hindu University and 1.5 kilometers South-West of Shri Kashi Vishwanath Mandir.

Tilbhandeshwar Temple is located about 5 km from the Varanasi Cantt Railway Station and 9 km from the Durga Temple. You can reach the temple by taxi, auto or rickshaw from any part of the Varanasi city.



Friday, November 3, 2017

तिलभाण्डेश्वर महादेव मंदिर

हरदा जिले के हजारों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र नगर का प्राचीन तिलभाण्डेश्वर महादेव मंदिर में स्थापित शिवलिंग नर्मदा में मिला था। यह मंदिर करीब दो सौ साल पुराना बताया जाता है।



पुजारी पं. हेमंत दुबे ने बताया कि तत्कालीन मकड़ाई रियासत का प्रमुख गांव सिराली था। यहां शिवभक्त लाला परसाई जी रहते थे। वे आमावस्या के दिन मां नर्मदा में स्नान के लिए हंडिया गए थे। उनके साथ एक मित्र भी थे। स्नान व पूजन अर्चन के बाद परसाई ने नर्मदा को प्रणाम किया। जल ग्रहण करने के लिए नर्मदा में हाथ डाला तो जल के साथ एक छोटा सा शिवलिंग भी हाथ में आ गया। वह शिवलिंग बहुत ही सुंदर था। जेब में रख कर घर कि ओर बैल गाड़ी से आते समय रास्ते में डगावा शंकर के पास माचक नदी पर दोनों पानी पीने के लिए उतरे। इस दौरान जेब में रखा शिवलिंग नदी में गिर गया।

भगवान ने स्वप्न में कहा-शिवलिंग मंदिर में स्थापित करो

घर आने पर भगवान ने स्वप्न में शिवलिंग को मंदिर में स्थापित करने को कहा। परसाई जी और उनके साथी को एक जैसा स्वप्न आया तो दोनों शिवलिंग को माचक नदी में खोजने गए। उन्हें शिवलिंग मिल गया। घर लाकर पूजा अर्चना की तो उन्होंने देखा कि लगभग पचास ग्राम का शिवलिंग पांच किलो का हो गया। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि हे प्रभु इतनी तेजी से आप का आकार बढ़ेगा तो में आप को कहां रखूंगा। उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की कि आप प्रति वर्ष एक तिल ही बढ़ें। तभी से मान्यता है कि शिवलिंग हर साल मकर संक्रांति पर तिल जितना बढ़ता है।



विशाल मंदिर बनाया

शिवलिंग की स्थापना के लिए परसाई जी ने ग्रावासियों को सभी बात बताई। इसके वाद गांव में ही एक छोटी सी कुटिया बनाकर इस शिवलिंग की स्थापना कर दी गई। सभी लोग पूजा करने लगे। 6 -7 माह के बाद अधिक बरसात होने पर यह मंदिर ढह गया। ग्रामीणों की मदद से मलबे से शिवलिंग को बाहर निकाला गया। इसके बाद मंदिर निर्माण के लिए सहयोग जुटाया गया। मंदिर के ऊपर विशाल गोल चक्र बनाए गए हैं। इसमें सीमेंट के स्थान पर अमाड़ी बीज, बील फल, अलसी का उपयोग किया गया। मंदिर का गुम्मद उसी घोल का बना हुआ है। यह मंदिर की सुंदरता को बढ़ाता है। 

देव दिवाली

देव दिवाली कार्तिक माह की पूर्णिमा के दिन यानि दिवाली से ठीक 15 दिन बाद मनाई जाती है। हर त्योहार देश के हर कोने में मनाया जाता है लेकिन कुछ त्योहार हैं जो विशेषकर किसी राज्य से जुड़े होते हैं। इसी तरह देव दिवाली का महत्व विशेषकर भारत की सांस्कृतिक नगरी वाराणसी से जुड़ा है। इस दिन काशी के रविदास घाट से लेकर राजघाट तक लाखों दिए जलाए जाते हैं। इस दिन माता गंगा की पूजा की जाती है। इस दिन गंगा के तटों का नजारा बहुत ही अद्भुत होता है। शास्त्रों के अनुसार देव दिवाली के कई कथाएं प्रचलित हैं, लेकिन उनमें से एक कथा महत्वपूर्ण है कि इस दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था और इसके पश्चात सभी देवताओं ने दिवाली मनाई थी। इस दिन के लिए मान्यता है कि सभी देव काशी आकर गंगा माता का पूजन करके दिवाली मनाते हैं, इसलिए इसे देव दिवाली कहा जाता है।



भगवान शिव के त्रिपुरारी कहलाने के पीछे एक बहुत ही रोचक कथा है। शिव पुराण के अनुसार जब भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने दैत्यराज तारकासुर का वध किया तो उसके तीन पुत्र तारकक्ष, विमलाकक्ष, तथा विद्युन्माली अपने पिता की मृत्यु पर बहुत दुखी हुए। उन्होंने देवताओ और भगवान शिव से अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने की ठानी तथा कठोर तपस्या के लिए ऊंचे पर्वतो पर चले गए। अपनी घोर तपस्या के बल पर उन्होंने ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे अमरता का वरदान माँगा। परन्तु ब्रह्मा जी ने कहा की मैं तुम्हे यह वरदान देने में असमर्थ हूँ अतः मुझ से कोई अन्य वरदान मांग लो। तब तारकासुर के तीनो पुत्रो ने ब्रह्मा जी से कहा की आप हमारे लिए तीनो पुरियों (नगर) का निर्माण करवाइये तथा इन नगरो के अंदर बैठे-बैठे हम पृथ्वी का भ्रमण आकाश मार्ग से करते रहे है। जब एक हजार साल बाद यह पूरिया एक जगह आये तो मिलकर सब एक पूर हो जाए। तब जो कोई देवता इस पूर को केवल एक ही बाण में नष्ट कर दे वही हमारी मृत्यु का कारण बने। ब्रह्माजी ने तीनो को यह वरदान दे दिया व एक मयदानव को प्रकट किया। ब्रह्माजी ने मयदानव से तीन पूरी का निर्माण करवाया जिनमे पहला सोने का दूसरा चांदी का व तीसरा लोहे का था। जिसमे सोने का नगर तारकक्ष, चांदी का नगर विमलाकक्ष व लोहे का महल विद्युन्माली को मिला।



तपस्या के प्रभाव व ब्रह्मा के वरदान से तीनो असुरो में असीमित शक्तियां आ चुकी थी जिससे तीनो ने लोगो पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने पराक्रम के बल पर तीनो लोको में अधिकार कर लिया। इंद्र समेत सभी देवता अपने जान बचाते हुए भगवान शिव की शरण में गए तथा उन्हें तीनो असुरो के अत्याचारों के बारे में बताया। देवताओ आदि के निवेदन पर भगवान शिव त्रिपुरो को नष्ट करने के लिए तैयार हो गए। स्वयं भगवान विष्णु, शिव के धनुष के लिए बाण बने व उस बाण की नोक अग्नि देव बने। हिमालय भगवान शिव के लिए धनुष में परिवर्तित हुए व धनुष की प्रत्यंचा शेष नाग बने। भगवान विश्वकर्मा ने शिव के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण करवाया जिसके पहिये सूर्य व चन्द्रमा बने. इंद्र, वरुण, यम कुबेर आदि देव उस रथ के घोड़े बने।



उस दिव्य रथ में बैठ व दिव्य अस्त्रों से सुशोभित भगवान शिव युद्ध स्थल में गए जहाँ तीनो दैत्य पुत्र अपने त्रिपुरो में बैठ हाहाकार मचा रहे थे। जैसे ही त्रिपुर एक सीध में आये भगवान शिव ने अपने अचूक बाण से उन पर निशाना साध दिया। देखते ही देखते उन त्रिपुरो के साथ वे दैत्य भी जलकर भस्म हो गए और सभी देवता आकाश मार्ग से भगवान शिव पर फूलो की वर्षा कर उनकी जय-जयकार करने लगे। उन तीनो त्रिपुरो के अंत के कारण ही भगवान शिव त्रिपुरारी नाम से जाने जाते है।

भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन राक्षस का वध कर उसके अत्याचारों से सभी को मुक्त कराया और त्रिपुरारि कहलाए। इससे प्रसन्न देवताओं ने स्वर्ग लोक में दीप जलाकर दीपोत्सव मनाया था इसके बाद से कार्तिक पूर्णिमा को देवदीवाली मनाई जाती है। इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व होता है। इस गंगा स्नान को कार्तिक पूर्णिमा का गंगा स्नान भी कहा जाता है। मान्यताओं के अनुसार इस दिन दीपदान करने से लंबी आयु का वरदान मिलता है। इसके साथ ही घर में हमेशा सुख-शांति का वास होता है। इस दिन क्षीरसागर दान का अनंत माहात्म्य है, क्षीरसागर का दान 24 अंगुल के बर्तन में दूध भरकर उसमें स्वर्ण या रजत की मछली छोड़कर किया जाता है। यह उत्सव दीपावली की भांति दीप जलाकर सायंकाल में मनाया जाता है।

Thursday, November 2, 2017

Vishnupada Temple

The temple is located on the bank of river Falgu River and has footprint of Vishnu known as Dharmasila, incised into a block of basalt. People believe that Lord Vishnu killed Gayasur by placing his foot on Gayasur's chest. Several legendary saints as Ramanujacharya, Madhvacharya, Sankaradeva and Chaitanya Mahaprabhu have visited this shrine.



Once a demon known as Gayasura, did a heavy penance and sought a boon that whoever see him should attain salvation (Moksham). Since salvation is achieved through being righteous in one's lifetime, people started obtaining it easily. To prevent immoral people from attaining salvation Lord Vishnu asked Gayasura to go beneath the earth and did so by placing his right foot on asura's head. After pushing Gayasura below the surface of earth, Lord Vishnu's foot print remained on the surface that we see even today. The footprint consists of nine different symbols including Shankam, Chakram and Gadham. These are believed to be weapons of the lord. Gayasura now pushed into earth pleaded for food. Lord Vishnu gave him a boon that every day, someone will offer him food. Whoever does so, their souls will reach heaven. The day Gayasura doesn't get food, it is believed that he will come out. Every day, one or the other from different parts of India will pray for welfare of his departed and offer food, feeding Gayasura.

The construction date of temple is unknown and it is believed that Rama along with Sita had visited this place. The present day structure was rebuilt by Devi Ahilya Bai Holkar, the ruler of Indore, in 1787. The 40 cm long footprint of Lord Vishnu is imprinted in solid rock and surrounded by a silver plated basin. Within the temple stands the immortal banyan tree Akshayabat where the final rituals for the dead takes place.

There is a gold flag and couple of Kalash made of gold has been embedded at the top of the temple which use to always glitter. It is said that long ago two thieves tried to steal the golden flag and the kalash from the top of the temple, but one thief became stone at the top of the temple and the other became stone as he fell to the ground. The stone of the thieves still remains on public view (it is not a man shape but a flat shape of the thieves).

While Hindus claim that footprints in Vishunpad temple are of Lord Vishnu, Buddhists consider them the footprints of Lord Buddha. This place is also believed to be the one under which the Lord Buddha meditated for six years. Lord Buddha preached the Fire Sermon i.e. Adittapariyaya Sutta to around 1000 agriculture workers who were fire-worshipers. The influence of Buddha’s discourse was so enormous that all of them converted to Buddhism.


Additional information on http://mandirinfo.com/TempleDetails.aspx?HID=156

हनुमान मंदिर, कनॉट प्लेस

महाभारत कालीन श्री हनुमान जी का एक प्राचीन मंदिर है। यहाँ पर उपस्थित हनुमान जी स्वयंभू हैं। ऐसा कहा जाता है कि मंदिर 1724 ईस्वी के आसपास...