Wednesday, November 8, 2017

काल भैरव मंदिर – जहां भगवान काल भैरव करते है मदिरा पान

मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर से करीब 8 कि.मी. दूर, क्षिप्रा नदी के तट पर कालभैरव मंदिर स्थित है। कालभैरव का यह मंदिर लगभग छह हजार साल पुराना माना जाता है। यह एक वाम मार्गी तांत्रिक मंदिर है। वाम मार्ग के मंदिरों में माँस, मदिरा, बलि, मुद्रा जैसे प्रसाद चढ़ाए जाते हैं। प्राचीन समय में यहाँ सिर्फ तांत्रिको को ही आने की अनुमति थी। वे ही यहाँ तांत्रिक क्रियाएँ करते थे। कालान्तर में ये मंदिर आम लोगों के लिए खोल दिया गया। कुछ सालो पहले तक यहाँ पर जानवरों की बलि भी चढ़ाई जाती थी। लेकिन अब यह प्रथा बंद कर दी गई है। अब भगवान भैरव को केवल मदिरा का भोग लगाया जाता है। काल भैरव को मदिरा पिलाने का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है। यह कब, कैसे और क्यों शुरू हुआ, यह कोई नहीं जानता।



महाकाल की नगरी उज्जैन में स्तिथ काल भैरव मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है की यहाँ पर भगवान काल भैरव साक्षात रूप में मदिरा पान करते है। जैसा की हम जानते है काल भैरव के प्रत्येक  मंदिर में भगवान भैरव को मदिरा प्रसाद के रूप में चढ़ाई जाती है। लेकिन उज्जैन स्तिथ काल भैरव मंदिर में जैसे ही शराब से भरे प्याले काल भैरव की मूर्ति के मुंह से लगाते है तो देखते ही देखते वो शराब के प्याले खाली हो जाते है।

मंदिर में काल भैरव की मूर्ति के सामने झूलें में बटुक भैरव की मूर्ति भी विराजमान है। बाहरी दिवरों पर अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी स्थापित है। सभागृह के उत्तर की ओर एक पाताल भैरवी नाम की एक छोटी सी गुफा भी है।

मंदिर में शराब चढ़ाने की गाथा भी बेहद दिलचस्प है। यहां के पुजारी बताते हैं कि स्कंद पुराण में इस जगह के धार्मिक महत्व का जिक्र है। इसके अनुसार, चारों वेदों के रचियता भगवान ब्रह्मा ने जब पांचवें वेद की रचना का फैसला किया, तो उन्हें इस काम से रोकने के लिए देवता भगवान शिव की शरण में गए। ब्रह्मा जी ने उनकी बात नहीं मानी। इस पर शिवजी ने क्रोधित होकर अपने तीसरे नेत्र से बालक बटुक भैरव को प्रकट किया। इस उग्र स्वभाव के बालक ने गुस्से में आकर ब्रह्मा जी का पांचवां मस्तक काट दिया। इससे लगे ब्रह्म हत्या के पाप को दूर करने के लिए वह अनेक स्थानों पर गए, लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली। तब भैरव ने भगवान शिव की आराधना की। शिव ने भैरव को बताया कि उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर ओखर श्मशान के पास तपस्या करने से उन्हें इस पाप से मुक्ति मिलेगी। तभी से यहां काल भैरव की पूजा हो रही है। कालांतर में यहां एक बड़ा मंदिर बन गया। मंदिर का जीर्णोद्धार परमार वंश के राजाओं ने करवाया था।

इसके अलावा जब भी किसी भक्त को मुकदमे में विजय हासिल होती है तो बाबा के दरबार में आकर मावे के लड्डू का प्रसाद चढ़ाते हैं तो वहीं जिन भक्तों की सूनी गोद भर जाती है वो यहां बाबा को बेसन के लड्डू और चूरमे का भोग लगाते हैं. प्रसाद चाहे कोई भी क्यों न हो बाबा के दरबार में आने वाले हर भक्त सवाली होता है और बाबा काल भैरव अपने आशीर्वाद से उसके कष्टों को हरने वाले देवता.

बाबा काल भैरव के इस धाम एक और बड़ी दिलचस्प चीज है जो भक्तों का ध्यान बरबस अपनी ओर खींचती है और वो है मंदिर परिसर में मौजूद ये दीपस्तंभ. श्रद्धालुओं द्वारा दीपस्तंभ की इन दीपमालिकाओं को प्रज्जवलित करने से सभी मनोकामनाऐं पूरी होती हैं. भक्तों द्वारा शीघ्र विवाह के लिए भी दीपस्तंभ का पूजन किया जाता है. जिनकी भी मनोकामना पूरी होती है वे दीपस्तंभ के दीप जरूर रोशन करवाते हैं. इसके अलावा मंदिर के अंदर भक्त अपनी मनोकामना के अनुसार दीये जलाते हैं जहां एक तरफ शत्रु बाधा से मुक्ति व अच्छे स्वास्थ्य के लिए सरसों के तेल का दीया जलाने की पंरपरा है तो वहीं अपने मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि की इच्छा करने वाले चमेली के तेल का दीया जलाते हैं.

कालभैरव के इस मंदिर में दिन में दो बार आरती होती है एक सुबह साढ़े आठ बजे आरती की जाती है. दूसरी आरती रात में साढ़े आठ बजे की जाती है. महाकाल की नगरी होने से भगवान काल भैरव को उज्जैन नगर का सेनापति भी कहा जाता है. कालभैरव के शत्रु नाश मनोकामना को लेकर कहा जाता है कि यहां मराठा काल में महादजी सिंधिया ने युद्ध में विजय के लिए भगवान को अपनी पगड़ी अर्पित की थी. पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय के बाद तत्कालीन शासक महादजी सिंधिया ने राज्य की पुर्नस्थापना के लिए भगवान के सामने पगड़ी रख दी थी. उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि युद्ध में विजयी होने के बाद वे मंदिर का जीर्णोद्धार करेंगे. कालभैरव की कृपा से महादजी सिंधिया युद्धों में विजय हासिल करते चले गए. इसके बाद उन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया. तब से मराठा सरदारों की पगड़ी भगवान कालभैरव के शीश पर पहनाई जाती है.

इस मंदिर की कहानी बड़ी दिलचस्प है. स्कंद पुराण के मुताबिक चारों वेदों के रचियता ब्रह्मा ने जब पांचवें वेद की रचना करने का फैसला किया तो परेशान देवता उन्हें रोकने के लिए महादेव की शरण में गए. उनका मानना था कि सृष्टि के  लिए पांचवे वेद की रचना ठीक नहीं है. लेकिन ब्रह्मा जी ने महादेव की भी बात नहीं मानी. कहते हैं इस बात पर शिव क्रोधित हो गए. गुस्से के कारण उनके तीसरे नेत्र से एक ज्वाला प्रकट हुई. इस ज्योति ने कालभैरव का रौद्ररूप धारण किया, और ब्रह्माजी के पांचवे सिर को धड़ से अलग कर दिया. कालभैरव ने ब्रह्माजी का घमंड तो दूर कर दिया लेकिन उन पर ब्रह्महत्या का दोष लग गया. इस दोष से मुक्ति पाने के लिए भैरव दर दर भटके लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली. फिर उन्होंने अपने आराध्य शिव की आराधना की. शिव ने उन्हें शिप्रा नदी में स्नान कर तपस्या करने को कहा. ऐसा करने पर कालभैरव को दोष से मुक्ति मिली और वो सदा के लिए उज्जैन में ही विराजमान हो गए.

वैसे तो काल भैरव के इस मंदिर में पैर रखते ही मन में एक अजीब सी शांति का एहसास होता है, लगता है मानो सारे दुख दूर हो गए लेकिन कालभैरव को ग्रहों की बाधाएं दूर करने के लिए जाना जाता है. खास तौर पर जन्म कुंडली में राहु से पीड़ित होने वाला व्यक्ति विचारों के जाल में फंसा रहता है. वो अगर इस मंदिर में आकर भगवान को भोग लगाता है तो उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाती है. बिल्कुल वैसे ही जैसे कालभैरव को शिव की आराधना से मिली थी.

बाबा काल भैरव के भक्तों के लिए उज्जैन का भैरो मंदिर किसी धाम से कम नहीं. सदियों पुराने इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसके दर्शन के बिना महाकाल की पूजा भी अधूरी मानी जाती है. अघोरी जहां अपने इष्टदेव की आराधना के लिए साल भर कालाष्टमी का इंतजार करते हैं वहीं आम भक्त भी इस दिन उनके आगे शीश नवां कर आशीर्वाद पाना नहीं भूलते. वैसे तो यहां साल भर भारी तादाद में श्रद्धालु आते हैं लेकिन रविवार की पूजा का यहां विशेष महत्व होता है.

Tuesday, November 7, 2017

रसखान

रसखान अर्थात रस की खान उसमें कवि हृदय भगवतभक्त और कृष्णमार्गी व्यक्तित्व का नाम था जिसने यशोदानन्दन श्रीकृष्ण की भक्ति में अपना समस्त जीवन व्यतीत कर दिया था | भक्त शिरोमणि रसखान का कनम विक्रमी संवत 1635 (सन 1578) में हुआ था | इनका परिवार भी भगवतभक्त था | पठान कुल में जन्मे रसखान को माता पिता के स्नेह के साथ साथ सुख ऐश्वर्य भी मिले | घर में कोई अभाव नही था |




चूँकि परिवार भर में भगवत भक्ति के संस्कार थे ,इस कारण रसखान को भी बचपन में धार्मिक जिज्ञासा विरासत में मिली थी | बृज के ठाकुर नटवरनागर नन्द किशोर भगवान कृष्ण पर इनकी अगाध श्रुदा थी | एक बार कही भगवतकथा का आयोजन हो रहा था |व्यास गद्दी पर बैठे कथा वाचक बड़ी ही सुबोध और सरल भाषा में महिमामय भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओ का सुंदर वर्णन कर रहे थे | उनके समीप ही बृजराज श्याम सुंदर का मनोहारी चित्र रखा था |

रसखान भी उस समय कथा श्रवण करने पहुचे | ज्यो ही उनकी दृष्टि व्यास गद्दी के समीप रखे कृष्ण कन्हैया के चित्र पर पड़ी | वह जैसे स्तभित रह गये | उनके नेत्र भगवान के रूप में माधुर्य को निहारते गये जैसे चुम्बक लोहे को अपनी तरफ खींचता है |उसी प्रकार रसखान का हृदय मनमोहन की मोहिनी सुरत की तरफ खींचा जा रहा था | कथा की समाप्ति पर रसखान एकटक उन्हें ही देखते रहे |

जब सब लोग चले गये तो व्यासजी ने उनकी तरफ देखा और जब उनकी अपलक दृष्टि का केंद्र देखा तो व्यास महाराज मुस्कुराने लगे | वह उठकर रसखान के पास आये |

“वत्स ! क्या देख रहे हो ?” उन्होंने सप्रेम पूछा |

रसखान ने प्रश्न पूछा  “पंडित जी ,सामने रखा चित्र भगवान श्रीकृष्ण का ही है न ”

व्यासजी ने कहा “हाँ ! यही उन्ही नटवर नागर का चित्र है ”

रसखान गदगद कंठ से बोले | “कितना सुंदर चित्र है | क्या कोई इतना दर्शनीय और मनभावन भी हो सकता है ?”

व्यासजी ने कहा “जिसने इतनी दर्शनीय सृष्टि का निर्माण कर दिया वह दर्शनीय और मनभावन तो होगा ही ”

अब रसखान ने कहा “पंडित जी , यह मनमोहिनी सुरत मेरे हृदय में बस गयी है | यह साक्षात इस अद्भुद मुखमंडल के दर्शन करने का अभिलाषी हु | क्या आप मुझे उनका पता बता सकते हो ?”

व्यासजी ने कहा “वत्स ब्रज के नायक तप ब्रज में ही मिलेंगे न ”

रसखान जी ने कहा “फिर तो मै ब्रज को ही जाता हु ”

जिसके हृदय में भाव जागृत हुए और प्रभु से मिलने की उत्कंठा तीव्र हो जाए ,उसे संसार में कुछ ओर दिखाई नही पड़ता है | रसखान भी ब्रज की तरफ चल पड़े और वृन्दावन धाम में जाकर ही निवास किया | ब्रज की रज से स्पर्श होते ही मलिनता नष्ट हो जाती है |

भगवती कलिन्दी के पवन जल की पवित्र शीतलता के स्पर्श से ही रसखान के भावपूर्ण हृदय में प्रेमोवेग से कम्पन्न होने लगा | वृन्दावन के कण कण से गूंजती कृष्णनाम की सुरीली धुन ने उन्हें भाव विभोर कर दिया | धामों में धाम परमधाम वृन्दावन जैसे स्वर्ग की अनुभूति करा रहा था | रसखान ने इस दिव्यधाम की अनुभूति को अपने पद में ऐसे व्यक्त किया

या लकुटीअरु कमरिया पर राज तिहु पुर कौ तजि डारो |
आठहु सिद्दी नवो निधि कौ सुख नन्द की गाय चराय बिसारो |
रसखान सदा इन नयनहि सौ बृज के वन तडाग निहारौ |
कोनही कलधौत के धाम करील को कुंजन उपर वरौ |

फिर रसखान के हृदय में गिरधारी के गिरी गोवर्धन को देखने की इच्छा हुयी तो यह गोवर्धन जा पहुचे | वहा श्रीनाथ जी के दर्शनों के लिए मन्दिर में घुसने लगे |

“अरे-रे …रे…रे … कहा घुसे जा रहे हो ?” द्वारपाल ने टोक दिया “तुम्हारी वेशभूषा तो दुसरी है तुम मन्दिर में नही जा सकते हो ”

“यह कैसा प्रतिबंध !  वेशभूषा से भक्ति का क्या संबध ?”

“मै कुछ नही सुनना चाहता | मै तुम्हे अंदर नही घुसने दूंगा  ”

“भाई मै भी इन्सान ही हु | तुम्हारे ही तरह मैंने भी एक स्त्री के गर्भ से जन्म लिया है |तुम्हारी ही तरह ईश्वर ने मुझे भी भजन सुमरिन और दर्शन का अधिकार दिया है फिर तुम मुझे प्रभु के दर्शनों से क्यों वंचित रखना चाहते हो ?”

“अपने ये तर्क किसी ओर को सुनाना | मै विधर्मी को मन्दिर में नही घुसने दे सकता हु मै इसलिए तैनात हु ”

“परन्तु  | ”

“तुम इस प्रकार नही मानोगे ” द्वारपाल ने गुस्से से रसखान को सीढियों से धक्का दे दिया |रसखान उस व्यवहार पर व्यथित तो हुए और उन्हें आश्चर्य भी हुआ कि ब्रज में ऐसी मतिबुद्धि वाले इन्सान भी रहते है परन्तु उन्हें श्याम सखा पर उन्हें विश्वास था |रसखान ने अपने को पुरी तरह से अपने कृष्ण सखा के हवाले करके अन्न जल त्याग दिया

देस बिदेस के देख नरेसन ,रीझी की कोऊ न बुझ करैगो |
ताते तिन्हे तजजि जान गिरयो ,गुन सौ गुन औगुन गंठी परैगो |
बांसुरी वारों बडो रिसवार है श्याम जो नैकु सुटार ठरैगो |
लाडिलो छैल वही तो अहीर को पीर हमारे हिये हरैगो |

भगवान भी कब  अपने भक्त की हृदय वेदना से अनभिज्ञ थे | भक्त की विकलता तो भगवान को भी विकल कर देती है |प्राण वल्लभ भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्त की विरलता का आभास किया और भक्त की सारी पीड़ा हर ली | हरि का तो यही कार्य होता है | भक्त के समक्ष साक्षात प्रकट होकर भगवान ने द्वारपाल के दुर्व्यवहार की क्षमा माँगी | फिर रसखान को गौसाई विट्ठलनाथ जी के पास जाने का आदेश दिया |

रसखान प्रभु का आदेश पाकर गोसाई जी के पास पहुचे  और उन्होंने उन्हें गोविदकुंड में स्नान कराकर दीक्षित किया | फिर तो जैसे रसखान के अंदर भक्ति काव्य के स्त्रोत फुट पड़े | आजीवन भगवान कृष्ण की लीला को काव्य के रूप में वर्णन करते हुए ब्रज रहे | केवल भगवान ही उनके सखा था ,संबधी थे ,मित्र थे | अन्य कोई चाह नही थी | कोई लालसा नही थी | परन्तु एक इच्छा जो उनके पदों में स्पस्ट झलकती है कि वह जन्म जन्मान्तर ब्रज की भूमि पर ही जन्म लेने की थी |

मानुष हो तो वही “रसखान ” बसों बृज गोकुल गाँव के गवारन
जो पसु हो तो कहा बस मेरो चरो नितनदं की धेनु मंझारण |
पाहन हौ तो वही गिरी को जो धरयो कर छत्र पुरन्दर कारन |
जो खग हो तो बसेरो करो नित कालिंदी फुल कदम्ब की डारन |




भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए" उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है। बोधा और आलम भी इसी परम्परा में आते हैं। सय्यद इब्राहीम "रसखान" का जन्म अन्तर्जाल पर उपलब्ध स्रोतों के अनुसार सन् १५३३ से १५५८ के बीच कभी हुआ था। कई विद्वानों के अनुसार इनका जन्म सन् १५९० ई. में हुआ था। चूँकि अकबर का राज्यकाल १५५६-१६०५ है, ये लगभग अकबर के समकालीन हैं। इनका जन्म स्थान पिहानी जो कुछ लोगों के मतानुसार दिल्ली के समीप है। कुछ और लोगों के मतानुसार यह पिहानी उत्तरप्रदेश के हरदोई जिले में है। मृत्यु के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाई। यह भी बताया जाता है कि रसखान ने भागवत का अनुवाद फारसी और हिंदी में किया है ।

सखान कृष्ण भक्त मुस्लिम कवि थे। हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन रीतिमुक्त कवियों में रसखान का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। रसखान को 'रस की खान' कहा गया है। इनके काव्य में भक्ति, शृंगार रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और उनके सगुण और निर्गुण निराकार रूप दोनों के प्रति श्रद्धावनत हैं। रसखान के सगुण कृष्ण वे सारी लीलाएं करते हैं, जो कृष्ण लीला में प्रचलित रही हैं। यथा- बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि। उन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधि में इन असीमित लीलाओं को बखूबी बाँधा है। मथुरा जिले में महाबन में इनकी समाधि हैं|

रसखान के जन्म के सम्बंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। अनेक विद्वानों इनका जन्म संवत् 1615 ई. माना है और कुछ ने 1630 ई. माना है। रसखान के अनुसार गदर के कारण दिल्ली श्मशान बन चुकी थी, तब दिल्ली छोड़कर वह ब्रज (मथुरा) चले गए। ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर पता चलता है कि उपर्युक्त गदर सन् 1613 ई. में हुआ था। उनकी बात से ऐसा प्रतीत होता है कि वह उस समय वयस्क हो चुके थे।

रसखान का जन्म संवत् 1590 ई. मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। भवानी शंकर याज्ञिक का भी यही मानना है। अनेक तथ्यों के आधार पर उन्होंने अपने मत की पुष्टि भी की है। ऐतिहासिक ग्रंथों के आधार पर भी यही तथ्य सामने आता है। यह मानना अधिक प्रभावशाली प्रतीत होता है कि रसखान का जन्म सन् 1590 ई. में हुआ था।

रसखान के जन्म स्थान के विषय में भी कई मतभेद है। कई विद्वान उनका जन्म स्थल पिहानी अथवा दिल्ली को मानते है। शिवसिंह सरोज तथा हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर रसखान का जन्म स्थान पिहानी जिला हरदोई माना जाए।

रसखान अर्थात् रस के खान, परंतु उनका असली नाम सैयद इब्राहिम था और उन्होंने अपना नाम केवल इस कारण रखा ताकि वे इसका प्रयोग अपनी रचनाओं पर कर सकें। कृष्ण-भक्ति ने उन्हें ऐसा मुग्ध कर दिया कि गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा ली और ब्रजभूमि में जा बसे। सन् 1628 के लगभग उनकी मृत्यु हुई।
सुजान रसखान और प्रेमवाटिका उनकी उपलब्ध कृतियाँ हैं। रसखान रचनावली के नाम से उनकी रचनाओं का संग्रह मिलता है।

प्रमुख कृष्णभक्त कवि रसखान की अनुरक्ति न केवल कृष्ण के प्रति प्रकट हुई है बल्कि कृष्ण-भूमि के प्रति भी उनका अनन्य अनुराग व्यक्त हुआ है। उनके काव्य में कृष्ण की रूप-माधुरी, ब्रज-महिमा, राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का मनोहर वर्णन मिलता है। वे अपनी प्रेम की तन्मयता, भाव-विह्नलता और आसक्ति के उल्लास के लिए जितने प्रसिद्ध हैं उतने ही अपनी भाषा की मार्मिकता, शब्द-चयन तथा व्यंजक शैली के लिए। उनके यहाँ ब्रजभाषा का अत्यंत सरस और मनोरम प्रयोग मिलता है, जिसमें ज़रा भी शब्दाडंबर नहीं है।

यह उनकी इच्छा थी कि उन्हें किसी भी योनी में जन्म मिले पर जन्म भूमि ब्रज ही हो | उच्च कोटि के काव्य और भक्ति के धनी रसखान ने प्रभु स्मरण करते हुए 45 वर्ष की आयु में निजधाम की यात्रा की ,जिनके दर्शनों के लिए कितने ही योगी सिध्पुरुष तरसा करते है | उन्ही भगवान श्रीकृष्ण भक्तवत्सल भगवान ने अपने हाथो से अपने इस भक्त की अंत्येष्टि कर भक्त की कीर्ति को बढाया | प्रेमपाश में बंधे भगवान की कृपा और दर्शन का परम सौभाग्य विरलों को ही मिलता है और रसखान भी उन्ही में से थे |

Monday, November 6, 2017

Karni Mata Mandir

The temple is dedicated to Goddess Karni, who is regarded as the incarnation of Maa Durga.




In the 14th century, Goddess Karni is said to have lived and performed many miracles during her existence. Karni Mata was a mystic, who led a virtuous life committed to the service of the poor and the oppressed of all communities. The goddess is said to have laid the foundation of Deshnoke. As per the stories, once when her youngest son drowned, Goddess Karni asked Yama (the god of death) to bring him back to life.

Lord Yama replied that he could not return her son's life. Thus, Karni Mata, being an incarnation of Goddess Durga, restored the life of her son. At this point of time, she announced that her family members would die no longer; in fact they would incarnate in the form of rats (kabas) and ultimately, these rats would come back as the members of her family. In Deshnok, there are around 600 families that assert to be the descendants of Karni Mata.

The present temple dates back to the 15th century, when it was built by Maharaja Ganga Singh of Bikaner. The striking façade of the temple is wholly built in marble. Inside the temple complex, one can see a pair of silver doors before the main shrine of the Goddess. These solid silver doors were donated by Maharaja Gaj Singh, on his visit to this temple.

In the main shrine, the image of the goddess is placed with holy things at her feet. Surrounded by rats, Karni Mata is holding a trishul (trident) in one of her hands. The image of Karni Mata is 75 cms tall, decked with a mukut (crown) and a garland of flowers. On her either side, images of her sisters are placed. Karni Mata Temple attracts numerous tourists and pilgrims throughout the year, due to its unique presiding beings.



The temple has around 20,000 rats that are fed, protected and worshipped. Many holes can be seen in the courtyard of this temple. In the vicinity of these holes, one can see rats engaged in different activities. The Rats can be seen here eating from huge metal bowls of milk, sweets and grains. To make the holy rats safe, wires and grills are sited over the courtyard to avoid the birds of prey and other animals.

The story behind rats at the temple is different according to some local folklore. According to this version, a 20,000 strong army deserted a nearby battle and came running to Deshnoke. Upon learning of the sin of desertion, punishable by death, Karni Mata spared their lives but turned them into rats, and offered the temple as a future place to stay. The army of soldiers expressed their gratitude and promised to serve Karni Mata evermore.

It is believed that in 1538, when she was returning to Deshnok with her stepson Poonjar and other followers. It was when they were near Gadiyala and Girirajsar in Bikaner district where she asked the caravan to stop for water and she disappeared there, reportedly at the age of 151 years .

The rats, known as “kabbas” or “little children,” are fed grains, milk, and coconuts shells from large metal bowls. Water the rats drink from is considered holy, and eating the rats’ leftovers is said to bring good fortune to those making the pilgrimage to the temple. The devotees have another reason to keep the rats safe and happy: According to the temple laws, if one of the rats is accidentally killed, it must be replaced with a rat made of silver or gold.

But there is a bittersweet note to the whole affair. All the sweet foods, the fighting between rats, and the sheer number of animals living in the temple make them prone to diseases. Stomach disorders and diabetes are extraordinarily common among the rats, and every few years a rat epidemic decimates the population. Luckily, despite the dangers to the rats themselves, there are no recorded cases of humans contracting a disease from the temple rats.

Shoes are not allowed in the temple, and it’s considered very auspicious for a rat to run over your feet - or for a visitor to glimpse an albino rat, of which there are only four or five out of the twenty thousand. To see the temple in full glory, visitors should come late at night or before sunrise, when the rats are out in full force, gathering food.



Karni Mata Fair:

Twice a year, a grand fair “Deshnok”, a beautiful town in Bikaner area is held at the Karni Mata. A grand fair (1 a) “Chaitra Shukla tenth” until “Chaitra Shukla Ekam” start “Navratri” time is held between the months of March and April. This huge fair hosts of pilgrims coming here from distant places attract between takes. 2 fair “Navratri” during the period, which is held between the months of September and October. The “Ashwin Shukla tenth” until “Ashwin Shukla,” is held. (Devotees gets rewarded wants) on each occasion the Karni Mata devotees offer gold and silver.



Best time to visit

From October to March, especially in the winter season, at any time of the year you can visit Karni Devi Temple. Karni Devi temple daily, 4: 00-10: 00 is open.

Sunday, November 5, 2017

Shri Tilbhandeshwar Mahadev Mandir Varanasi

Shri Tilbhandeshwar Mahadev Mandir also known as Tilbhandeshwar Mahadev Mandir and Tilbhandeshwar Mandir, is one of the oldest and most famous temples in the holy city of Varanasi. This temple has great religious importance in Hinduism and is dedicated to the Lord Shiva. Tilbhandeshwar Mandir is believed to be constructed in 18th century.



It has assimilated Malayali and Hindu cultures in its broad fold. The temple has Shivalingam in the Garbhagriha. Like many other temples of the worlds’ oldest living city of Varanasi the temple has surfaced itself and hence called Swyambhu, translates to appeared itself. Unlike many other gods worshipped in deity form there are rare instances of worshipping Lord Shiva in deity or idol form. In almost all temples of India the supreme god Lord Shiva is worshipped in Shivalingam form. Though there is no evidence of starting of cult of Shivalingam or Phallus worship it is believed that it dates back to Harappan civilization as Shiva in Lingam form was worshipped as reverence to the power of regeneration because he is considered as the destroyer of the universe. But the form worshipped in Harappan Civilization was that of Pashupati, a synonym of Lord Shiva. Pashupati means master of animals or creatures; it is because he is said to have surrounded by animals in many myths of Indian Culture.

Tilbhandeshwar Temple is located near Bangal Tola Inter College and next to Madanpura, the famous Banarasi Sarees weavers’ colony. It is believed that Shivalingam present in the centre of the temple increases with passage of time. Geologists believe that these happenings are not supernatural. It is because of endogenic forces and movements of the earth. It is said that Goddess Sharda, Goddess of knowledge has spent here some days. The devotees of the temple come here to worship and offer other things dear to god in order to appease him for their well being.



The ShivLingam is said to increase by size of a 'til'. This fact is proven scientifically and it is a miracle which can be seen by the eyes.Presently the visible part of the Shiv Ling is almost 3.5 ft. and the diameter of the base would be around 3 ft. (approx). The exact height of whole Shiv Lingam is not known bt it must be around 20 ft. There is a special silence in the temple unlike other temples ther is no 'panda' system so one can go to main Garbh Griah where the Shiv Ling is offer Jal and can sit and meditate in the feet of Lord.

Maha Shivaratri, Shravan Nagapanchami and Ayappa Pooja are the main festivals celebrated at the precincts of the temple. Besides there is a huge crowed on every Monday as the day is dedicated to Lord Shiva. It is not only unique thing of Indian culture but also in Roman and Greek cultures people used to celebrate days and name planets on the name of Gods and Goddesses. Mars, Jupiter, Venus, Mithiro, are not merely planets but also relates to great traditions of Roman and Greek cultures.

Temple has a serene premise to attract anyones attention. Unlike many other bustling temples of the city the Tilbhandeshwar Temple has a calm and pristine nature around itself. If you are a spiritual being you can enjoy long hours to meditate in the capturing silence of the temple.

Temple opens at 4.30 am in the morning and closes 9 pm at night.  Daily the Shringar is done after 3:30 pm and special shringar is done on every Monday which is a real beautiful thing to see and everyday around 10 AM & 7 PM the bhog and aarti is done .

Shri Tilbhandeshwar Mahadev Mandir is situated in Pandey Haveli, Bhelupur, adjacent to Bengali Tola Inter College, 500 meters East of river Ganga, 3.2 kilometers North of Banaras Hindu University and 1.5 kilometers South-West of Shri Kashi Vishwanath Mandir.

Tilbhandeshwar Temple is located about 5 km from the Varanasi Cantt Railway Station and 9 km from the Durga Temple. You can reach the temple by taxi, auto or rickshaw from any part of the Varanasi city.



Friday, November 3, 2017

तिलभाण्डेश्वर महादेव मंदिर

हरदा जिले के हजारों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र नगर का प्राचीन तिलभाण्डेश्वर महादेव मंदिर में स्थापित शिवलिंग नर्मदा में मिला था। यह मंदिर करीब दो सौ साल पुराना बताया जाता है।



पुजारी पं. हेमंत दुबे ने बताया कि तत्कालीन मकड़ाई रियासत का प्रमुख गांव सिराली था। यहां शिवभक्त लाला परसाई जी रहते थे। वे आमावस्या के दिन मां नर्मदा में स्नान के लिए हंडिया गए थे। उनके साथ एक मित्र भी थे। स्नान व पूजन अर्चन के बाद परसाई ने नर्मदा को प्रणाम किया। जल ग्रहण करने के लिए नर्मदा में हाथ डाला तो जल के साथ एक छोटा सा शिवलिंग भी हाथ में आ गया। वह शिवलिंग बहुत ही सुंदर था। जेब में रख कर घर कि ओर बैल गाड़ी से आते समय रास्ते में डगावा शंकर के पास माचक नदी पर दोनों पानी पीने के लिए उतरे। इस दौरान जेब में रखा शिवलिंग नदी में गिर गया।

भगवान ने स्वप्न में कहा-शिवलिंग मंदिर में स्थापित करो

घर आने पर भगवान ने स्वप्न में शिवलिंग को मंदिर में स्थापित करने को कहा। परसाई जी और उनके साथी को एक जैसा स्वप्न आया तो दोनों शिवलिंग को माचक नदी में खोजने गए। उन्हें शिवलिंग मिल गया। घर लाकर पूजा अर्चना की तो उन्होंने देखा कि लगभग पचास ग्राम का शिवलिंग पांच किलो का हो गया। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि हे प्रभु इतनी तेजी से आप का आकार बढ़ेगा तो में आप को कहां रखूंगा। उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की कि आप प्रति वर्ष एक तिल ही बढ़ें। तभी से मान्यता है कि शिवलिंग हर साल मकर संक्रांति पर तिल जितना बढ़ता है।



विशाल मंदिर बनाया

शिवलिंग की स्थापना के लिए परसाई जी ने ग्रावासियों को सभी बात बताई। इसके वाद गांव में ही एक छोटी सी कुटिया बनाकर इस शिवलिंग की स्थापना कर दी गई। सभी लोग पूजा करने लगे। 6 -7 माह के बाद अधिक बरसात होने पर यह मंदिर ढह गया। ग्रामीणों की मदद से मलबे से शिवलिंग को बाहर निकाला गया। इसके बाद मंदिर निर्माण के लिए सहयोग जुटाया गया। मंदिर के ऊपर विशाल गोल चक्र बनाए गए हैं। इसमें सीमेंट के स्थान पर अमाड़ी बीज, बील फल, अलसी का उपयोग किया गया। मंदिर का गुम्मद उसी घोल का बना हुआ है। यह मंदिर की सुंदरता को बढ़ाता है। 

देव दिवाली

देव दिवाली कार्तिक माह की पूर्णिमा के दिन यानि दिवाली से ठीक 15 दिन बाद मनाई जाती है। हर त्योहार देश के हर कोने में मनाया जाता है लेकिन कुछ त्योहार हैं जो विशेषकर किसी राज्य से जुड़े होते हैं। इसी तरह देव दिवाली का महत्व विशेषकर भारत की सांस्कृतिक नगरी वाराणसी से जुड़ा है। इस दिन काशी के रविदास घाट से लेकर राजघाट तक लाखों दिए जलाए जाते हैं। इस दिन माता गंगा की पूजा की जाती है। इस दिन गंगा के तटों का नजारा बहुत ही अद्भुत होता है। शास्त्रों के अनुसार देव दिवाली के कई कथाएं प्रचलित हैं, लेकिन उनमें से एक कथा महत्वपूर्ण है कि इस दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था और इसके पश्चात सभी देवताओं ने दिवाली मनाई थी। इस दिन के लिए मान्यता है कि सभी देव काशी आकर गंगा माता का पूजन करके दिवाली मनाते हैं, इसलिए इसे देव दिवाली कहा जाता है।



भगवान शिव के त्रिपुरारी कहलाने के पीछे एक बहुत ही रोचक कथा है। शिव पुराण के अनुसार जब भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने दैत्यराज तारकासुर का वध किया तो उसके तीन पुत्र तारकक्ष, विमलाकक्ष, तथा विद्युन्माली अपने पिता की मृत्यु पर बहुत दुखी हुए। उन्होंने देवताओ और भगवान शिव से अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने की ठानी तथा कठोर तपस्या के लिए ऊंचे पर्वतो पर चले गए। अपनी घोर तपस्या के बल पर उन्होंने ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे अमरता का वरदान माँगा। परन्तु ब्रह्मा जी ने कहा की मैं तुम्हे यह वरदान देने में असमर्थ हूँ अतः मुझ से कोई अन्य वरदान मांग लो। तब तारकासुर के तीनो पुत्रो ने ब्रह्मा जी से कहा की आप हमारे लिए तीनो पुरियों (नगर) का निर्माण करवाइये तथा इन नगरो के अंदर बैठे-बैठे हम पृथ्वी का भ्रमण आकाश मार्ग से करते रहे है। जब एक हजार साल बाद यह पूरिया एक जगह आये तो मिलकर सब एक पूर हो जाए। तब जो कोई देवता इस पूर को केवल एक ही बाण में नष्ट कर दे वही हमारी मृत्यु का कारण बने। ब्रह्माजी ने तीनो को यह वरदान दे दिया व एक मयदानव को प्रकट किया। ब्रह्माजी ने मयदानव से तीन पूरी का निर्माण करवाया जिनमे पहला सोने का दूसरा चांदी का व तीसरा लोहे का था। जिसमे सोने का नगर तारकक्ष, चांदी का नगर विमलाकक्ष व लोहे का महल विद्युन्माली को मिला।



तपस्या के प्रभाव व ब्रह्मा के वरदान से तीनो असुरो में असीमित शक्तियां आ चुकी थी जिससे तीनो ने लोगो पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने पराक्रम के बल पर तीनो लोको में अधिकार कर लिया। इंद्र समेत सभी देवता अपने जान बचाते हुए भगवान शिव की शरण में गए तथा उन्हें तीनो असुरो के अत्याचारों के बारे में बताया। देवताओ आदि के निवेदन पर भगवान शिव त्रिपुरो को नष्ट करने के लिए तैयार हो गए। स्वयं भगवान विष्णु, शिव के धनुष के लिए बाण बने व उस बाण की नोक अग्नि देव बने। हिमालय भगवान शिव के लिए धनुष में परिवर्तित हुए व धनुष की प्रत्यंचा शेष नाग बने। भगवान विश्वकर्मा ने शिव के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण करवाया जिसके पहिये सूर्य व चन्द्रमा बने. इंद्र, वरुण, यम कुबेर आदि देव उस रथ के घोड़े बने।



उस दिव्य रथ में बैठ व दिव्य अस्त्रों से सुशोभित भगवान शिव युद्ध स्थल में गए जहाँ तीनो दैत्य पुत्र अपने त्रिपुरो में बैठ हाहाकार मचा रहे थे। जैसे ही त्रिपुर एक सीध में आये भगवान शिव ने अपने अचूक बाण से उन पर निशाना साध दिया। देखते ही देखते उन त्रिपुरो के साथ वे दैत्य भी जलकर भस्म हो गए और सभी देवता आकाश मार्ग से भगवान शिव पर फूलो की वर्षा कर उनकी जय-जयकार करने लगे। उन तीनो त्रिपुरो के अंत के कारण ही भगवान शिव त्रिपुरारी नाम से जाने जाते है।

भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन राक्षस का वध कर उसके अत्याचारों से सभी को मुक्त कराया और त्रिपुरारि कहलाए। इससे प्रसन्न देवताओं ने स्वर्ग लोक में दीप जलाकर दीपोत्सव मनाया था इसके बाद से कार्तिक पूर्णिमा को देवदीवाली मनाई जाती है। इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व होता है। इस गंगा स्नान को कार्तिक पूर्णिमा का गंगा स्नान भी कहा जाता है। मान्यताओं के अनुसार इस दिन दीपदान करने से लंबी आयु का वरदान मिलता है। इसके साथ ही घर में हमेशा सुख-शांति का वास होता है। इस दिन क्षीरसागर दान का अनंत माहात्म्य है, क्षीरसागर का दान 24 अंगुल के बर्तन में दूध भरकर उसमें स्वर्ण या रजत की मछली छोड़कर किया जाता है। यह उत्सव दीपावली की भांति दीप जलाकर सायंकाल में मनाया जाता है।

Thursday, November 2, 2017

Vishnupada Temple

The temple is located on the bank of river Falgu River and has footprint of Vishnu known as Dharmasila, incised into a block of basalt. People believe that Lord Vishnu killed Gayasur by placing his foot on Gayasur's chest. Several legendary saints as Ramanujacharya, Madhvacharya, Sankaradeva and Chaitanya Mahaprabhu have visited this shrine.



Once a demon known as Gayasura, did a heavy penance and sought a boon that whoever see him should attain salvation (Moksham). Since salvation is achieved through being righteous in one's lifetime, people started obtaining it easily. To prevent immoral people from attaining salvation Lord Vishnu asked Gayasura to go beneath the earth and did so by placing his right foot on asura's head. After pushing Gayasura below the surface of earth, Lord Vishnu's foot print remained on the surface that we see even today. The footprint consists of nine different symbols including Shankam, Chakram and Gadham. These are believed to be weapons of the lord. Gayasura now pushed into earth pleaded for food. Lord Vishnu gave him a boon that every day, someone will offer him food. Whoever does so, their souls will reach heaven. The day Gayasura doesn't get food, it is believed that he will come out. Every day, one or the other from different parts of India will pray for welfare of his departed and offer food, feeding Gayasura.

The construction date of temple is unknown and it is believed that Rama along with Sita had visited this place. The present day structure was rebuilt by Devi Ahilya Bai Holkar, the ruler of Indore, in 1787. The 40 cm long footprint of Lord Vishnu is imprinted in solid rock and surrounded by a silver plated basin. Within the temple stands the immortal banyan tree Akshayabat where the final rituals for the dead takes place.

There is a gold flag and couple of Kalash made of gold has been embedded at the top of the temple which use to always glitter. It is said that long ago two thieves tried to steal the golden flag and the kalash from the top of the temple, but one thief became stone at the top of the temple and the other became stone as he fell to the ground. The stone of the thieves still remains on public view (it is not a man shape but a flat shape of the thieves).

While Hindus claim that footprints in Vishunpad temple are of Lord Vishnu, Buddhists consider them the footprints of Lord Buddha. This place is also believed to be the one under which the Lord Buddha meditated for six years. Lord Buddha preached the Fire Sermon i.e. Adittapariyaya Sutta to around 1000 agriculture workers who were fire-worshipers. The influence of Buddha’s discourse was so enormous that all of them converted to Buddhism.


Additional information on http://mandirinfo.com/TempleDetails.aspx?HID=156

Monday, October 30, 2017

A Vaishnava should not even take vishnu-prasädam on Ekädasi.

His Divine Grace, A.C Bhaktivedanta Swami Prabhupada, has given quotes in books, lectures and especially in conversations with other devotees. The quotes below come from his Divine Grace.

"On Ekädasi, everything is cooked for Vishnu, including regular grains and dhal, but it is enjoined that a Vaishnava should not even take vishnu-prasädam on Ekädasi. It is said that a Vaishnava does not accept anything eatable that is not offered to Lord Vishnu, but on Ekädasi a Vaishñava should not touch even mahä-prasädam offered to Vishñu, although such prasädam may be kept for being eaten the next day. It is strictly forbidden for one to accept any kind of grain on Ekädasi, even if it is offered to Lord Vishñu".



"Since the living entities of Kali yuga are short lived and lusty, they are unable to perform severe austerity. The living entities of Kali yuga subsist on food grains and cannot survive without eating these grains. People of Satya, Treta and Dvapara yugas were capable of undergoing severe austerity and tolerate physical distresses. This is why a minimum austerity in the form of fasting twice a month on the days of Ekadasi has been prescribed for the people of Kali yuga. If they are able they should eat only once the day before Ekadasi, fast totally on the day of Ekadasi and eat only once the day after Ekadasi. If one is unable to follow even this, in other words if one is unable to eat only once on the day before and after Ekadasi, than he must observe complete fast on the day of Ekadasi. If one is still unable to follow this then he should give up eating five types of grains and observe the vow of Ekadasi simply by partaking some fruits and roots. The five types of grains are:
rice or other products made from rice such as flat rice, puffed rice etc.;
wheat flour and white flour etc.;
barley etc.;
pulses such as moong, chickpea, green peas, lentil, etc.;
mustard oil and sesame oil.

Kansa Vadh

Kansa Vadh is observed on the tenth day of the ‘Shukla Paksha’ in the month of ‘Kartik.’ Kansa Vadh marks the victory of good over evil. On this day Lord Krishna killed ‘Kansa’ and reinstated ‘King Ugrasena’ as the Ruler of Mathura. According to the Hindu scriptures, Kansa was an evil ruler of Mathura. Lord Vishnu in his Eighth avatar as ‘Krishna’ killed his maternal uncle Kansa and released his grandfather and parents from the prison. Kansa Vadh is a victory of ‘Dharma’ over ‘Adharma.' It celebrates the annihilation of evil and restoration goodness.



Significance and Legend:

Kansa Vadh holds religious significance for the followers of Lord Krishna. It commemorates the victory of goodness over evil. As per the Hindu legends, Kansa, the son of King Ugrasena and Queen Padmavati was an evil ruler of Mathura. Kansa wanted to become king. He decided to overthrow his father. He married to Princesses Asti and Prapti, daughters neighbouring King Jarasandha of Magadha province and used his army to overthrow his father. He carried out atrocities. He imprisoned his father, sister Devaki and her husband, Vasudev. Kansa was prophesied by sage Narada that Devaki’s eighth son would cause his death, he imprisoned his sister and killed all her children. However, Balaram and Lord Krishna survived and brought up by Nanda and Yashoda. When Kansa got to know that Krishna was Devaki’s eight children, he made many unsuccessful attempts to kill him by sending out demons like Putana, Kaliye, Bakasura, and Aghasura. He devised a plan to invite Lord Krishna and Balaram to Mathura as a representative of the people in Gokul and kill him off with a mad elephant. This plan failed too. He asked the demons, Canura, and Mustika to wrestle with Lord Krishna and Balaram and kill them during a fight. Lord Krishna and Balaram defeated them. Later, Lord Krishna killed King Kansa and released his parents from prison. King Ugrasen was restored his crown and people of Mathura were set free from the miseries. Since then, this day began to be celebrated as Kansa Vadh. This day is celebrated in Mathura, as it signifies the freedom from the oppressive rule of King Kansa and the presence of Lord Krishna on their soil.

Rituals:

Devotees worship Lord Krishna and Balram. Sweets and other delicacies are prepared and offered to the deities. An idol of Kansa is burnt by the followers of Lord Krishna. The ritual symbolizes that evil is short-lived and goodness and truth prevail. On the occasion of Kansa Vadh, a huge procession is carried out. Devotees recite the mantras. Kansa Vadh is celebrated with great enthusiasm. People apply colors and flowers on each other to express their bliss and happiness. The town of Mathura comes alive. Several cultural events such as drama, music, and dance are held at different places. Locals enjoy the Kansa Vadh Leela, a skit portraying the event.

Saturday, October 28, 2017

Maa jagadhatri Puja

Jagaddhatri or Jagadhatri is an aspect of the Hindu goddess Durga, who is particularly worshipped in the West Bengal region of India. Her cult is directly derived from Tantra where she is a symbol of sattva beside Durga and Kali, respectably symbolized with Rajas and Tamas.



She is celebrated on Gosthastami. It is also referred to as another Durga Puja as it also starts on Asthami tithi and ends on Dashami tithi. The date of the puja is decided by the luni-solar Hindu calendar.

Jagaddhatri is depicted as being the colour of the morning sun, three-eyed and four-armed, holding a chakra, conch, bow and arrows, clothed in red, bright jewels and nagajangopaveeta (a serpent as the sacred thread), a symbol of yoga and the Brahman. She rides a lion standing on the dead Karindrasura, the Elephant Demon. "Jagaddhatri arises in the heart of a person," said Ramakrishna, "who can control the frantic elephant called mind."

Though she is worshipped all over West Bengal and some places of Odisha, Jagaddhatri Puja in Chandannagar, Krishnanagar, Boinchi, Bhadreswar, Hooghly, Rishra, Ishapore, Tehatta, Ashoknagar Kalyangarh, and Baripada, have a special socio-cultural celebration. In Kolkata, too, Jagaddhatri Puja is a major autumnal Hindu event after Durga Puja and Kali Puja. In Ramakrishna Mission, Jagaddhatri Puja was initiated by Sarada Devi, Ramakrishna’s wife and observed in the centres of the Mission all over the world.

In Sanskrit, Bengali and Assamse the word 'Jagaddhatri' literally means 'Holder (dhatri) of the World (Jagat)' . According to Sri Ramakrishna, “(Jagaddhatri) holds the World. If she wouldn’t, the World might fall down. This explanation can be applied for both Durga and Jagaddhatri. Like most of other Hindu deities, Jagaddhatri is also known with other names like Karindrasuranisudini (Slayer of the Elephant Demon), Maheswari (the Great Goddess), Shaktacharpriya (the Goddess who loves to be worshiped in accordance to the practices of the Sakta sect of Hinduism, or Shaktism), Adharabhuta (the Bearer of the World) etc.

As per ancient Pauranik lore of the Hindu scriptures, soon after the victory over Mahishasur the Devatas became highly egoistic. They thought because of lending to Durga their instruments the mighty asuras were vanquished. To make them understand that the primordial power is alone behind every action, then Para Brahma appeared before the Devatas in the form of effulgent Yaksha.

Bewildered by its presence one by one the Devatas approached Yaksha. First the god of wind Vayu. The Yaksha asked him what he could do. The Vayu replied that he could throw away huge trees, tumble high mountains. The Yaksha then placed a small grass and asked him to move it. The Vayu utilised all his powers but lo! he could not even displace it. So also the god of fire Agni, could not even burn it. Likewise one by one the Devatas failed.

And it dawned on them that their powers are in reality not their own but derived from the supreme power who as protecting mother holds the entire creation and therefore called Jagaddhatri. Anybody who worships Jagaddhatri becomes absolutely egoless and a true servant of the world which is nothing but a manifestation of the Brahman.

The Jagadharti Puja was first started by Maharaja Krishnachandra of Krishnanagar, Nadia in Bengal. Jagadhatri Puja is very popular in Krishnanagar, Rishra, Chandannagar, Bhadreswar, Hooghly, Boinchi. In Krishnanagar, Nadia, Burimar Jagadhatri Puja is one of the oldest Jagadhatri Puja in Bengal. Legend has it that once during the British Raj in India Maharaja Krishnachandra was arrested by British Investigation Agency for going against British Empire and getting involved in Swadeshi activities. He was released from Prison during the day of Vijaya Dashami due to which the entire festivity of Durga Puja in his kingdom was spoiled so to again rejoice Maharaja started the ritual of this Jagadhatri Puja was started. Primarily this puja was done by one old woman called 'Burima' in Bengali language. Later the goddess was named after 'Burima'. Presently in Krishnanagar more than a hundred Jagadhatri Puja events are organized but the main attraction is still Burima.

After Ratha Yatra, Jagadhatri Mela at Bhanjpur Jagadhatri Podia, is the biggest mela of Baripada, Odisha. It is the festival of Maa Jagadhatri, Goddess of the whole world. There is an 8–15 days mela(carnival) also known as mini Bali Jatra named after Cuttack's Bali Jatra which takes place at Jagadhatri Mela Podia, Bhanjpur, near the Bhanjpur railway Station during the month of October–November. It is celebrated on Gosthastami. It is also referred to as another Durga Puja as it also starts on Asthami tithi and ends on Dashami tithi. The date of the puja is decided by the luni-solar Hindu calendar.


Friday, October 27, 2017

कुंडली मिलान में योनि मिलान क्यों?

ऐसा कहा जाता है कि सफल वैवाहिक जीवन के लिए स्त्री और पुरुष दोनों के नक्षत्र की योनि समान होनी चाहिए। इससे दोनों के आंतरिक गुण समान होने से आपसी मतभेद होने की संभावना कम रहती है, यानि कि एक सफल वैवाहिक जीवन इसी योनि के कारण बनता है।



इस संसार में जितने भी जीव हैं वह किसी ना किसी योनि से अवश्य ही संबंध रखते हैं। वैदिक ज्योतिष में भी इन योनियों के महत्व पर बल दिया गया है और इनका संबंध नक्षत्रों से जोड़ा गया है। योनियों के वर्गीकरण में अभिजीत सहित 28 नक्षत्रों को लिया गया है। तो इन 28 नक्षत्रों के हिसाब से ये योनियां चौदह हुईं, क्योंकि दो नक्षत्रों को एक योनि के अन्तर्गत रखा जाता है। तभी तो दो नक्षत्रों को मिलाकर देखा जाता है कि यह किस प्रकार की योनि बना रहे हैं और यह सुखी वैवाहिक जीवन के लिए सही भी है या नहीं।

14 प्रकार की योनियों के बारे में-

पहली सात

यहां पहली सात योनियों के बारे में जानें.... अश्व योनि - अश्विनी, शतभिष; गज योनि - भरणी, रेवती; मेष योनि - पुष्य, कृतिका; सर्प योनि - रोहिणी, मृ्गशिरा; श्वान योनि - मूल, आर्द्रा; मार्जार योनि - आश्लेषा, पुनर्वसु; मूषक योनि - मघा, पूर्वाफाल्गुनी।

शेष सात

शेष सात योनियां इस प्रकार हैं...... गौ योनि - उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद; महिष योनि - स्वाती, हस्त; व्याघ्र योनि - विशाखा, चित्रा; मृग योनि - ज्येष्ठा, अनुराधा; वानर योनि - पूर्वाषाढ़ा, श्रवण; नकुल योनि - उत्तराषाढ़ा, अभिजीत; सिंह योनि - पूर्वाभाद्रपद, धनिष्ठा।

योनियों का संबंध क्या फल प्रदान करता है-

कुंडली शास्त्र के अनुसार योनियों का परस्पर संबंध पांच प्रकार से होता है। ये संबंध ही अपने मुताबिक वर-वधु के रिश्ते पर प्रभाव डालते हैं।

स्वभाव योनि

पहला है स्वभाव योनि, जिसका अर्थ है वर तथा कन्या की योनि एक है। यदि दोनों की योनि एक ही है तब विवाह को शुभ माना गया है।

मित्र योनि

वर-वधु की कुंडली को मिलाकर यदि मित्र योनि बने, तो ऐसा विवाह मधुर बनता है। ऐसे शादीशुदा जोड़े में आपसी समझ की अधिकता एवं प्यार काफी ज्यादा होता है।

उदासीन अथवा सम योनि

यदि लड़के तथा लड़की की कुण्डली में दोनों की योनियां परस्पर उदासीन स्वभाव की हैं तब वैवाहिक संबंध औसत ही रहते हैं। ऐसे विवाह में कोई ना कोई छोटी-मोटी परेशानी चलती ही रहती है जो रिश्ते पर सवाल खड़े कर देती है।

शत्रु योनि

यदि वर तथा कन्या की परस्पर योनियां मिलाने पर ये शत्रु स्वभाव की बनें, तो ऐसा विवाह नहीं करना चाहिए। यह विवाह कुंडली शास्त्र के अनुसार अशुभ माना जाता है, अंतत: इसे टालने में ही सबकी भलाई है।

महाशत्रु योनि

शत्रु योनि से भी बढ़कर महाशत्रु योनि है, यदि वर तथा कन्या कि योनियों में महाशत्रुता हो तो यह बेहद अशुभ विवाह बनता है। ना केवल इससे दाम्पत्य जीवन में वियोग तथा कष्टों का सामना करना पड़ सकता है, साथ ही वर-वधु से जुड़े दो परिवार भी इस विवाह के अशुभ संकटों में फंसते चले जाते हैं।

वर-वधु की कुंडली का मिलान करते समय ज्योतिषी कई तरह की गलतियां कर जाते हैं। कई बार तो वे उन अहम बिंदुओं को परखना ही भूल जाते हैं जो भविष्य में वर-वधु के शादीशुदा जीवन की नींव बनने वाले हैं। या फिर यदि परखते भी हैं तो उस गहराई से नहीं, जितनी कि आवश्यकता होती है। इन्हीं कभी भी नजरअंदाज ना करने वाली चीजों में से एक है कुंडली का “योनि मिलान”। वर एवं वधु किस योनि से हैं एवं उन दोनों की योनि एक-दूसरे के लिए अनुकूल है या नहीं, इस बात को जान लेना बेहद महत्वपूर्ण है।  

Tuesday, October 24, 2017

लाभ पंचमी

कार्तिक शुक्ल पंचमी को लाभ पंचमी मनाई जाती है। इसे सौभाग्य पंचमी, सौभाग्य लाभ पंचमी या लाभ पंचम भी कहते है। यह पर्व मुख्यतः गुजरात में मनाया जाता है। जहाँ भारत के बाकी हिस्सों में भाई दूज के साथ ही दिवाली का समापन हो जाता है वही गुजरात में दिवाली का समापन लाभ पंचमी की पूजा के साथ होता है। यह त्योहार व्यापारियों और व्यवसायियों के लिए बेहद शुभ माना जाता है। कहा जाता है कि इस दिन ईश्वर की आराधना से व्यवसायियों और उनके परिवारवालों के जीवन में फायदा और अच्छी किस्मत आती है।



गुजरात में सभी व्यापारी अपना व्यापार लाभ पंचमी के दिन से ही शुरू करते हैं। खास बात यह कि दिवाली के अगले दिन ही गुजराती नववर्ष मनाया जाता है। इस दिन से सभी लोग 4 दिनों की छुट्टी पर चले जाते हैं और लाभ पंचमी के दिन से दोबारा काम-काज शुरू करते हैं। इसके अलावा नया बही-खाता भी बनाया जाता है जिसकी बाईं ओर शुभ और दाईं ओर लाभ लिखा जाता है। इसके बाद पहले पन्ने के बीच में स्वास्तिक का चित्र बनाकर काम-काज प्रारंभ किया जाता है।

लाभ पंचमी पूजन के दिन प्रात: काल स्नान इत्यादि से निवृत होकर सूर्य को जलाभिषेक करने की परंपरा है। फिर शुभ मुहूर्त में विग्रह में भगवान शिव व गणेश जी की प्रतिमाओं को स्थापित की जाती है। श्री गणेश जी को सुपारी पर मौली लपेटकर चावल के अष्टदल पर विराजित किया जाता है। भगवान गणेश जी को चंदन, सिंदूर, अक्षत, फूल, दूर्वा से पूजना चाहिए तथा भगवान आशुतोष को भस्म, बिल्वपत्र, धतुरा, सफेद वस्त्र अर्पित कर पूजन किया जाता है और उसके बाद गणेश को मोदक व शिव को दूध के सफेद पकवानों का भोग लगाया जाता है।

निम्न मंत्रों से श्री गणेश व शिव का स्मरण व जाप करना चाहिए।

गणेश मंत्र – लम्बोदरं महाकायं गजवक्त्रं चतुर्भुजम्। आवाहयाम्यहं देवं गणेशं सिद्धिदायकम्।।
शिव मंत्र – त्रिनेत्राय नमस्तुभ्यं उमादेहार्धधारिणे। त्रिशूलधारिणे तुभ्यं भूतानां पतये नम:।।

इसके पश्चात मंत्र स्मरण के बाद भगवान गणेश व शिव की धूप, दीप व आरती करनी चाहिए। द्वार के दोनों ओर स्वस्तिक का निर्माण करें तथा भगवान को अर्पित प्रसाद समस्त लोगों में वितरित करें व स्वयं भी ग्रहण करें।

सौभगय पंचमी के अवसर पर मंदिरों में विषेष पूजा अर्चना की जाती है गणेश मंदिरों में विशेष धार्मिक अनुष्ठान संपन्न होते हैं। लाभ पंचमी के अवसर पर घरों में भी प्रथम आराध्य देव गजानंद गणपति का आह्वान किया जाता है। भगवान गणेश की विधिवत पूजा अर्चना की और घर परिवार में सुख समृद्धि की मंगल कामना की जाती है। इस अवसर पर गणपति मंदिरों में भगवान गणेश की मनमोहक झांकी सजाई जाती है जिसे देखने के लिए दिनभर श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती हैं। रात को भजन संध्या का आयोजन होता है।

लाभ पंचमी के शुभ अवसर पर विशेष मंत्र जाप द्वारा भगवान श्री गणेश का आवाहन करते हैं जिससे शुभ फलों की प्राप्ति संभव हो पाती है। कार्यक्षेत्र, नौकरी और कारोबार में समृद्धि की कामना की पूर्ति होती है। इस दिन गणेश के साथ भगवान शिव का स्मरण शुभफलदायी होता है। सुख-सौभाग्य और मंगल कामना को लेकर किया जाने वाला सौभगय पंचमी का व्रत सभी की इच्छाओं को पूर्ण करता है। इस दिन भगवान के दर्शन व पूजा कर व्रत कथा का श्रवण करते हैं।

Thursday, October 5, 2017

Maharishi Valmiki

Maharishi Valmiki is revered as Ādi Kavi, the first poet, author of Ramayana, the first epic poem. Valmiki was born as Agni Sharma to a brahmin named Pracheta (also known as Sumali) of Bhrigu gotra. According to legend he once met the great sage Narada and had a discourse with him on his duties. Moved by Narada's words, Agni Sharma began to perform penance and chanted the word "Mara" which meant "kill". As he performed his penance for several years, the word became "Rama", the name of Lord Vishnu. Huge anthills formed around Agni Sharma and this earned him the name of Valmiki. Agni Sharma, rechristened as Valmiki, learnt the scriptures from Narada and became the foremost of ascetics, revered by everyone.



Vishnudharmottara Purana says that Valmiki was born in the Treta Yuga as a form of Bramha who composed Ramayana and that people desirious of earning knowledge should worship Valmiki. He was later reincarnated as Tulsidas, who the Ramcharitamanas, which was the Awadhi-Hindi version of the Ramayana.

It is also said that Maharishi Valmiki in his early life was a highway dacoit named Ratnakar, who used to rob people after killing them. On the advice of Narada Muni, Ratnakar performed great penance by reciting great Mantra of Rama Nama. After years of meditation, a divine voice declared his penance successful and bestowed him with new name Valmiki, the one who born out of ant-hills.

How Ratnakar became Valmiki

Ratnakara was the son of sage Prachetasa . When he was a young boy,  he went into the forest. While playing he lost his way and began to cry. Just then a hunter came there looking for a prey. He saw the chubby boy and fondled and pacified him. The hunter had no children. He took the boy to his hut in the midst of the jungle.

Ratnakara's father searched for his son all around the hermitage, but could not find him. Finally he and his wife thought that the boy had become the prey of some wild beast. Both wept very much.

The hunter and his wife brought up the lad with great love. Ratnakara forgot his parents. He took the hunter for his father and the hunter's wife for his mother. He was taught how to hunt by the father. Ratnakara was a clever boy and learnt it quickly. He became a hunter with a sure aim.

To the birds and beasts of the forest, he became verily Yama, the God of Death. When he came of age, his foster father searched for a bride and celebrated his marriage with a beautiful girl from a hunters family. In a few years she gave birth to some children. Thus Ratnakara's family grew in size. It became very difficult for him to provide food and clothing to his large family. So he took to robbery. He began to attack people going from one village to another, frighten them and to away all that they had. If they opposed him, he killed them.

One day Ratnakara was sitting by the side of a road waiting for a victim. It happened that the great sage Narada was passing that way. Narada had his favorite musical instrument, a Veena, in his hands. As he played on the Veena, he was singing a song in praise of God. When he was thus lost in joy, suddenly Ratnakara rushed at him. He lifted the stout staff in his hands and shouted, "Look here! Hand over all you have or else I'll break your head."

But Narada was not an ordinary man. He was a divine sage, and one who wandered all over the Earth, the Heaven and the Underworld. He was not frightened by the loud shouts of Ratnakara. He smilingly, "My dear man, all that I have only this old Veena and the rags I we; If you want them, you can certainly take them. Why should you break my head for these?"

Ratnakara was astonished at these words. He looked up at Narada's face. There was neither fear nor anger; there was only peace. And how bright was that face! He was surprised to see a face tender and innocent like that of a child. He had never seen such a lovely face. As he gazed, his cruel mind melted into tenderness.

Narada sat beneath a tree and as played on the Veena, sang a song in praise of God. It was sweet like the song of cuckoo. Ratnakara was deeply moved. Noticing the change, the sage Narada paused in his song and said, "Brother, stealing is a sin. Killing animals is also sinful. Why do you do such evil?"

"Sire, what can I do Ratnakara replied, I have a large family. There are my old parents and my wife and children, They partake of my happiness and my troubles. I have to provide them with food and clothing. Hunting and stealing are all I know. What else can I do?"




The sage smiled and said, "My friend, will any member of your family partake of your sin also ? Go and ask them, and bring back their reply."

Ratnakara thought that Narada was trying a trick to make his escape. Narada understood it and again said, "Well, child, if you do not trust me, you can tie me to this tree and then go."

Ratnakara thought that was all right. He tied Narada to a tree and went home.

On reaching home, he first went to his father and said, "Father, I rob people to get food and clothing for you all. It seems that is a sin. Do you not share in that sin?"

His father was angry and said, "You sinner, you should not do such bad things. Am I to share your sins? No, never. You have to suffer for what you do."

Ratnakara went to his mother and said, "Surely, mother, you will share my sin, won't you?" But she also scolded him and sent him away. He then went to his wife and said, "Do you know how I earn to provide you and your children with food and clothing? It is by robbery. But I steal for your sake. Therefore you are also partners in my sin. Isn't that so?"

The wife was displeased and said, 'What are you saying? What have we to do with your sin? You are my husband, and my children are your children. It is your duty to look after us and give us food and clothing."

Ratnakara's eyes were opened. He realized that he alone was responsible for all his sins no one else would share his sin. As soon as it was clear to him, he ran to Narada. He untied the sage and amidst weeping, narrated to him all that had happened in his home. Falling at Narada's feet he asked the sage, "Oh, sire now what of me? How can I atone for all the sins I have committed? You are my only savior."

Narada lifted him up and wiped his tears. He consoled him saying, "Do not be afraid. I shall teach you a way to wash off your sins." So he taught Ratnakara the sacred name of Rama - 'Rama Nam'. He made him sit beneath a tree and asked him to go on repeating the sacred name of Rama. He said, I shall come here again, Till then you should not get up and go away." Then the sage departed.

Ratnakara continued his 'tapas’ chanting the name of Rama. His eyes were closed. His whole mind was concentrate on the chanting of the name of the Lord He forgot his existence. He had neither food nor sleep for days and days. And in this way quite a few years passed. An ant hill grew all around and above him. He could not even be seen by anybody.



At last one day the sage Narada again came that way. Of course, he knew that Ratnakara was inside the anthill. Very carefully he cleared that anthill still Ratnakara was wholly lost in his 'tapas' and did not wake up to the world around him. Narada chanted the name of Rama in his ears. Then he opened his eyes and saw the sage standing before him. He saluted him from where he was sitting. Narada helped him to get up. He also gently touched him all over. Ratnakara felt new life flowing through him. He touched the sage's feet; Narada lifted him up and embraced him. He said to him, "Ratnakara, you are blessed. God is pleased with your 'tapas'. You are now a sage of the highest order, a Brahmarshi. As you are now reborn from a Valmika (the ant-hill), will here after be famous as Valmiki."

Tears of joy welled up in Valmiki’s eyes at these words. He prostrated before Narada again and said, "Sire, all this is your kindness. The company of good men uplifts man. I am myself a proof of this." Narada blessed him and went his way.

The sage, Valmiki, now formed his ashrama or hermitage near the river Ganga. His fame spread every – where Many other sages went with their families and settled down in his ashrama. This sons became the disciples of Valmiki.

One day Sri Rama with his wife Seetha and brother Lakshmana came to Valmiki's ashrama. Valmiki's joy knew no limit. With the help of his disciples he waited on them with great enthusiasm. His disciples brought them water to wash their hands and feet, and spread mattresses for them to sit upon. They offered the guests fresh milk and tasty fruits.

After resting a while, Sri Rama narrated his story. He had come to the forest so that his father's promise might be fulfilled. Valmiki was very pleased to hear it. He said, "Ramachandra, there is none so truthful as you are. You have given up your kingdom so that your father's promise may be kept. Giving up a king's throne, you have come to the forest. You are not an ordinary man but the Almighty Himself. The power of your name is such that I have changed from a sinful hunter to a sage, a Brahmarshi. Your grace is great."

Sri Rama smiled. Then he said to Valmiki, "O great sage, we have come he to live near your hermitage. Please show us a suitable spot." There was a hill very near Valmiki's hermitage. It was called Chitrakuta. It was a beautiful place with many kinds of plants full of flowers and trees bearing fruits. Valmiki guided Rama to that hill. Sri Rama lived for a while on the hill with his wife and brother.


The first sloka

Valmiki was going to the river Ganges for his daily ablutions. A disciple by the name Bharadwaja was carrying his clothes. On the way, they came across the Tamasa Stream. Looking at the stream, Valmiki said to his disciple, "Look, how clear is this water, like the mind of a good man! I will bathe here today." When he was looking for a suitable place to step into the stream, he saw a crane couple mating. Valmiki felt very pleased on seeing the happy birds. Suddenly, hit by an arrow, the male bird died on the spot. Filled by sorrow, its mate screamed in agony and died of shock. Valmiki's heart melted at this pitiful sight. He looked around to find out who had shot the bird. He saw a hunter with a bow and arrows, nearby. Valmiki became very angry. His lips opened and he cried out,

मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥'

mā niṣāda pratiṣṭhā tvamagamaḥ śāśvatīḥ samāḥ
yat krauñcamithunādekam avadhīḥ kāmamohitam

You will find no rest for the long years of Eternity
For you killed a bird in love and unsuspecting

Emerging spontaneously from Valmiki's rage and grief, this is considered to be the first shloka in Sanskrit literature. Valmiki later composed the entire Ramayana with the blessings of Lord Brahma in the same meter that issued forth from him as the shloka. Thus this shloka is revered as the first shloka in Hindu literature. Valmiki is revered as the first poet or Adi Kavi and Ramayana, the first kavya(poem).

Ramayana, originally written by Valmiki, consists of 24,000 shlokas and 7 cantos (kaṇḍas) including Uttara Kanda. Ramayana is composed of about 480, 002 words, being a quarter of the length of the full text of Mahabharata or about four times the length of Iliad. Ramayana tells the story of a prince, Rama of Ayodhya, whose wife Sita is abducted by Ravana, the demon-king (Rakshasa) of Lanka.The Valmiki Ramayana is dated variously from 500 BCE to 100 BCE or about co-eval with early versions of Mahabharata. As with many traditional epics, it has gone through a process of interpolations and redactions, making it impossible to date accurately.

Valmiki is also quoted to be the contemporary of Rama. Rama met Valmiki during his period of exile and interacted with him. Valmiki gave shelter to Sita in his hermitage when Rama banished her. Kusha and Lava, the twin sons of Shri Rama were born to Sita in this hermitage.



His first disciples to whom he taught the Ramayana were Kusha and Lava, the sons of Rama:

प्रचेत्सोऽहं दशमः पुत्रो राघवनंन्दन |
न स्मराम्यनृतं वाक्यमिमौ तु तव पुत्रकौ ||

In another verse, it is also stated that he is from the lineage of the sage Bhargava:

संनिबद्धं हि श्लोकानां चतुर्विंशत्सहस्रकम् |
उपाख्यानशतं चैव भार्गवेण तपस्विना ||


Lav and Kush later sang the divine story in Ayodhya during the Ashwamedha yajna congregation, to the pleasure of the audience, whereupon, King Rama questioned who they were and later visited Valmiki's hermitage to confirm if Sita, the two children claimed as their mother was in fact his wife in exile. Later, he summoned them to his royal palace. Kusha and Lava sang the story of Rama there and Rama confirmed that whatever had been sung by these two children was entirely true.

Valmiki Jayanti

Valmiki Jayanti marks the birth anniversary of the great author and sage, Maharishi Valmiki. Every year, Valmiki Jayanti falls on full moon day which is known as Purnima, during the month of Ashwin whereas in the Gregorian calendar it corresponds to the month of September-October.

There are several Valmiki temples in India, but the most prominent one is known to be situated in Chennai. Take a look at some interesting facts about the Maharishi Valmiki Temple:

• The Maharishi Valmiki temple situated in Thiruvanmiyur, Chennai.
• The temple stands on the East Coast Road in the aptly named Valmiki Nagar.
• Valmiki temple is believed to be around 1300 years old.
• It is believed that after writing the epic Ramayana, Maharishi Valmiki rested at the spot where the Valmiki temple now stands, reported India.com.
• The Valmiki temple now falls under the supervision of the Maruntheeshwarar temple that was constructed during the Chola reign, is another prominent temple in the city.
• It is believed that sage Valmiki visited the Marundeeswarar temple to worship Lord Shiva following which the region was named Thiruvalmikiyur which gradually changed to Thiruvanmiyur.

Valmiki is a great example of how people are uplifted by the company of good men. By coming into contact with Narada, he became a great sage, a Brahmarshi; and he also gave the 'Ramayana' which the world can never forget. It is one of the great epics of the world. People of other countries read it in their own languages. The study of the 'Ramayana can reform our lives. We can never forget Valmiki who gave this great epic to us. Let us offer our salutations to that great sage and bard.

Wednesday, October 4, 2017

Meera

Meera, also known as Meera Bai or Mirabai, was a 16th-century Hindu mystic poet and devotee of Krishna. She is a celebrated Bhakti saint, particularly in the North Indian Hindu tradition. Mira Bai is widely known as an incarnation of Radha, the consort of Lord Krishna.



Meera Bai was born into a Rajput royal family of Kudki district of Pali, Rajasthan, India. She is mentioned in Bhaktamal, confirming that she was widely known and a cherished figure in the Bhakti movement culture by about 1600 CE. Most legends about Meera mention her fearless disregard for social and family conventions, her devotion to god Krishna, her treating Krishna as her husband, and she being persecuted by her in-laws for her religious devotion. She has been the subject of numerous folk tales and hagiographic legends, which are inconsistent or widely different in details.

Thousands of devotional poems in passionate praise of Lord Krishna are attributed to Meera in the Indian tradition, but just a few hundred are believed to be authentic by scholars, and the earliest written records suggest that except for two poems, most were written down only in the 18th century. Many poems attributed to Meera were likely composed later by others who admired Meera. These poems are commonly known as bhajans, and are popular across India. Hindu temples, such as in Chittorgarh fort, are dedicated to Mira Bai's memory. Legends about Meera's life, of contested authenticity, have been the subject of movies, comic strips and other popular literature in modern times.

Authentic records about Meera are not available, and scholars have attempted to establish Meera's biography from secondary literature that mention her, and wherein dates and other moments. Meera unwillingly married Bhoj Raj, the crown prince of Mewar, in 1516. Her husband was wounded in one of the ongoing Hindu-Muslim wars of the Delhi Sultanate in 1518, and he died of battle wounds in 1521. Both her own father and her father-in-law were killed within a few years after her husband, during a war with the Islamic army of Babur – the founder of Mughal Empire in the Indian subcontinent.

After the death of her father-in-law, Vikram Singh became the ruler of Mewar. According to a popular legend, her in-laws tried many times to execute her, such as sending Meera a glass of poison and telling her it was nectar or sending her a basket with a snake instead of flowers. According to the hagiographic legends, she was not harmed in either case, with the snake miraculously becoming a Krishna idol (or a garland of flowers depending on the version). In another version of these legends, she is asked by Vikram Singh to go drown herself, which she tries but she finds moment floating on water. Yet another legend states that the Mughal emperor Akbar came with Tansen to visit Meera and presented a pearl necklace, but scholars doubt this ever happened because Tansen joined Akbar's court in 1562, 15 years after she died.

Similarly, some stories state that Raidas was her guru (teacher), but there is no corroborating historical evidence for this and the difference of over 100 years in the birth years for Raidas and Meera suggest this to be unlikely.

The three different oldest records known as of 2014 that mention Meera, all from the 17th century and written within 150 years of Meera's death, neither mention anything about her childhood or circumstances of her marriage to Bhojraj, nor do they mention that the people who persecuted her were her in-laws or from some Rajput royal family. To the extent Meera was challenged and persecuted, religious or social conventions were unlikely to have been the cause, rather the likely cause were political chaos and military conflicts between the Rajput kingdom and the Mughal Empire. Further, the diversity and inconsistencies in Meera's stories suggest that her biography was likely invented and molded by all sides, long after her death, for political goals through the medium of historical rewriting.

Other stories state that Mira Bai left the kingdom of Mewar and went on pilgrimages. In her last years, Meera lived in Dwarka or Vrindavan, where legends state she miraculously disappeared by merging into an idol of Krishna in 1547 (at the temple of Ranchod). While miracles are contested by scholars for the lack of historical evidence, it is widely acknowledged that Meera dedicated her life to Hindu deity Krishna, composing songs of devotion.

Meera was one of the central poet-saints of the Bhakti movement, during a difficult period in Indian history filled with Hindu-Muslim religious conflicts. Yet, they simultaneously question the extent to which Meera was a canonical projection of social imagination that followed, where she became a symbol of people's suffering and a desire for an alternative. The continued influence of Meera, in part, has been her message of freedom, her resolve and right to pursue her devotion to deity Krishna and her spiritual beliefs as she felt drawn to despite her persecution.

हनुमान मंदिर, कनॉट प्लेस

महाभारत कालीन श्री हनुमान जी का एक प्राचीन मंदिर है। यहाँ पर उपस्थित हनुमान जी स्वयंभू हैं। ऐसा कहा जाता है कि मंदिर 1724 ईस्वी के आसपास...